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इस्लाम का इतिहास


आमतौर पर यह समझा जाता है कि इस्लाम 1400 वर्ष पुराना धर्म है, और इसके ‘प्रवर्तक’ पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) हैं। लेकिन वास्तव में इस्लाम 1400 वर्षों से काफ़ी पुराना धर्म है; उतना ही पुराना जितना धर्ती पर स्वयं मानवजाति का इतिहास और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इसके प्रवर्तक (Founder) नहीं, बल्कि इसके आह्वाहक हैं। आपका काम उसी चिरकालीन (सनातन) धर्म की ओर, जो सत्यधर्म के रूप में आदिकाल से ‘एक’ ही रहा है, लोगों को बुलाने, आमंत्रित करने और स्वीकार करने के आह्वान का था। आपका मिशन, इसी मौलिक मानव धर्म को इसकी पूर्णता के साथ स्थापित कर देना था ताकि मानवता के समक्ष इसका व्यावहारिक रूप साक्षात् रूप में आ जाए।
इस्लाम का इतिहास जानने का अस्ल माध्यम स्वयं इस्लाम का मूल ग्रंथ ‘क़ुरआन’ है। और क़ुरआन, इस्लाम का आरंभ प्रथम  मनुष्य ‘आदम’ से होने का ज़िक्र करता है। इस्लाम धर्म के अनुयायियों के लिए क़ुरआन ने ‘मुस्लिम’ शब्द का प्रयोग हज़रत इबराहीम (अलैहि॰) के लिए किया है जो लगभग 4000 वर्ष पूर्व एक महान पैग़म्बर (सन्देष्टा) हुए थे। हज़रत आदम (अलैहि॰) से शुरू होकर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) तक हज़ारों वर्षों पर फैले हुए इस्लामी इतिहास में असंख्य ईशसंदेष्टा ईश्वर के संदेश के साथ, ईश्वर द्वारा विभिन्न युगों और विभिन्न क़ौमों में नियुक्त किए जाते रहे। उनमें से 26 के नाम कु़रआन में आए हैं और बाक़ी के नामों का वर्णन नहीं किया गया है। इस अतिदीर्घ श्रृंखला में हर ईशसंदेष्टा ने जिस सत्यधर्म का आह्वान दिया वह ‘इस्लाम’ ही था; भले ही उसके नाम विभिन्न भाषाओं में विभिन्न रहे हों। बोलियों और भाषाओं के विकास का इतिहास चूंकि क़ुरआन ने बयान नहीं किया है इसलिए ‘इस्लाम’ के नाम विभिन्न युगों में क्या-क्या थे, यह ज्ञात नहीं है।
इस्लामी इतिहास के आदिकालीन होने की वास्तविकता समझने के लिए स्वयं ‘इस्लाम’ को समझ लेना आवश्यक है। इस्लाम क्या है, यह कुछ शैलियों में क़ुरआन के माध्यम से हमारे सामने आता है, जैसे:
1. इस्लाम, अवधारणा के स्तर पर ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद’ का नाम है। यहां ‘विशुद्ध’ से अभिप्राय है: ईश्वर के व्यक्तित्व, उसकी सत्ता व प्रभुत्व, उसके अधिकारों (जैसे उपास्य व पूज्य होने के अधिकार आदि) में किसी अन्य का साझी न होना। विश्व का...बल्कि पूरे ब्रह्माण्ड और अपार सृष्टि का यह महत्वपूर्ण व महानतम सत्य मानवजाति की उत्पत्ति से लेकर उसके हज़ारों वर्षों के इतिहास के दौरान अपरिवर्तनीय, स्थायी और शाश्वत रहा है।
2. इस्लाम शब्द का अर्थ ‘शान्ति व सुरक्षा’ और ‘समर्पण’ है। इस प्रकार इस्लामी परिभाषा में इस्लाम नाम है, ईश्वर के समक्ष, मनुष्यों का पूर्ण आत्मसमर्पण; और इस आत्मसमर्पण के द्वारा व्यक्ति, समाज तथा मानवजाति के द्वारा ‘शान्ति व सुरक्षा’ की उपलब्धि का। यह अवस्था आरंभ काल से तथा मानवता के इतिहास हज़ारों वर्ष लंबे सफ़र तक, हमेशा मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता रही है।
इस्लाम की वास्तविकता, एकेश्वरवाद की हक़ीक़त, इन्सानों से एकेश्वरवाद के तक़ाज़े, मनुष्य और ईश्वर  के बीच अपेक्षित संबंध, इस जीवन के पश्चात (मरणोपरांत) जीवन की वास्तविकता आदि जानना एक शान्तिमय, सफल तथा समस्याओं, विडम्बनाओं व त्रासदियों से रहित जीवन बिताने के लिए हर युग में अनिवार्य रहा है; अतः ईश्वर ने हर युग में अपने सन्देष्टा (ईशदूत, नबी, रसूल, पैग़म्बर) नियुक्त करने (और उनमें से कुछ पर अपना ‘ईशग्रंथ’ अवतरित करने) का प्रावधान किया है। इस प्रक्रम का इतिहास, मानवजाति के पूरे इतिहास पर फैला हुआ है।
4. शब्द ‘धर्म’ (Religion) को, इस्लाम के लिए क़ुरआन ने शब्द ‘दीन’ से अभिव्यक्त किया है। क़ुरआन में कुछ ईशसन्देष्टाओं के हवाले से कहा गया है (42:13) कि ईश्वर ने उन्हें आदेश दिया कि वे ‘दीन’ को स्थापित (क़ायम) करें और इसमें भेद पैदा न करें, इसे (अनेकानेक धर्मों के रूप में) टुकड़े-टुकड़े न करें।
इससे सिद्ध हुआ कि इस्लाम ‘दीन’ हमेशा से ही रहा है। उपरोक्त संदेष्टाओं में हज़रत नूह (Noah) का उल्लेख भी हुआ है और हज़रत नूह (अलैहि॰) मानवजाति के इतिहास के आरंभिक काल के ईशसन्देष्टा हैं। क़ुरआन की उपरोक्त आयत (42:13) से यह तथ्य सामने आता है कि अस्ल ‘दीन’ (इस्लाम) में भेद, अन्तर, विभाजन, फ़र्क़ आदि करना सत्य-विरोधी है-जैसा कि बाद के ज़मानों में ईशसन्देष्टाओं का आह्वान व शिक्षाएं भुलाकर, या उनमें फेरबदल, कमी-बेशी, परिवर्तन-संशोधन करके इन्सानों ने अनेक विचारधाराओं व मान्यताओं के अन्तर्गत ‘बहुत से धर्म’ बना लिए।
मानव प्रकृति प्रथम दिवस से आज तक एक ही रही है। उसकी मूल प्रवृत्तियों में तथा उसकी मौलिक आध्यात्मिक, नैतिक, भौतिक आवश्यकताओं में कोई भी परिवर्तन नहीं आया है। अतः मानव का मूल धर्म भी मानवजाति के पूरे इतिहास में उसकी प्रकृति व प्रवृत्ति के ठीक अनुकूल ही होना चाहिए। इस्लाम इस कसौटी पर पूरा और खरा उतरता है। इसकी मूल धारणाएं, शिक्षाएं, आदेश, नियम...सबके सब मनुष्य की प्रवृत्ति व प्रकृति के अनुकूल हैं।
अतः यही मानवजाति का आदिकालीन तथा शाश्वत धर्म है।
क़ुरआन ने कहीं भी हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को ‘इस्लाम धर्म का प्रवर्तक’ नहीं कहा है। क़ुरआन में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का परिचय नबी (ईश्वरीय ज्ञान की ख़बर देने वाला), रसूल (मानवजाति की ओर भेजा गया), रहमतुल्-लिल-आलमीन (सारे संसारों के लिए रहमत व साक्षात् अनुकंपा, दया), हादी (सत्यपथ-प्रदर्शक) आदि शब्दों से कराया है।
स्वयं पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने इस्लाम धर्म के ‘प्रवर्तक’ होने का न दावा किया, न इस रूप में अपना परिचय कराया। आप (सल्ल॰) के एक कथन के अनुसार ‘इस्लाम के भव्य भवन में एक ईंट की कमी रह गई थी, मेरे (ईशदूतत्व) द्वारा वह कमी पूरी हो गई और इस्लाम अपने अन्तिम रूप में सम्पूर्ण हो गया’ (आपके कथन का भावार्थ।) इससे सिद्ध हुआ कि आप (सल्ल॰) इस्लाम धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। (इसका प्रवर्तक स्वयं अल्लाह है, न कि कोई भी पैग़म्बर, रसूल, नबी आदि)। और आप (सल्ल॰) ने उसी इस्लाम का आह्वान किया जिसका, इतिहास के हर चरण में दूसरे रसूलों ने किया था। इस प्रकार इस्लाम का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना मानवजाति और उसके बीच नियुक्त होने वाले असंख्य रसूलों के सिलसिले (श्रृंखला) का इतिहास।
यह ग़लतफ़हमी फैलने और फैलाने में, कि इस्लाम धर्म की उम्र कुल 1400 वर्ष है दो-ढाई सौ वर्ष पहले लगभग पूरी दुनिया पर छा जाने वाले यूरोपीय (विशेषतः ब्रिटिश) साम्राज्य की बड़ी भूमिका है। ये साम्राज्यी, जिस ईश-सन्देष्टा (पैग़म्बर) को मानते थे ख़ुद उसे ही अपने धर्म का प्रवर्तक बना दिया और उस पैग़म्बर के अस्ल ईश्वरीय धर्म को बिगाड़ कर, एक नया धर्म उसी पैग़म्बर के नाम पर बना दिया। (ऐसा इसलिए किया कि पैग़म्बर के आह्वाहित अस्ल ईश्वरीय धर्म के नियमों, आदेशों, नैतिक शिक्षाओं और हलाल-हराम के क़ानूनों की पकड़ (Grip) से स्वतंत्र हो जाना चाहते थे, अतः वे ऐसे ही हो भी गए।) यही दशा इस्लाम की भी हो जाए, इसके लिए उन्होंने इस्लाम को ‘मुहम्मडन-इज़्म (Muhammadanism)’ का और मुस्लिमों को ‘मुहम्मडन्स (Muhammadans)’ का नाम दिया जिससे यह मान्यता बन जाए कि मुहम्मद ‘इस्लाम के प्रवर्तक (Founder)’ थे और इस प्रकार इस्लाम का इतिहास केवल 1400 वर्ष पुराना है। न क़ुरआन में, न हदीसों (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰ के कथनों) में, न इस्लामी इतिहास-साहित्य में, न अन्य इस्लामी साहित्य में...कहीं भी इस्लाम के लिए ‘मुहम्मडन-इज़्म’ शब्द और इस्लाम के अनुयायियों के लिए ‘मुहम्मडन’ शब्द प्रयुक्त हुआ है, लेकिन साम्राज्यिों की सत्ता-शक्ति, शैक्षणिक तंत्र और मिशनरी-तंत्र के विशाल व व्यापक उपकरण द्वारा, उपरोक्त मिथ्या धारणा प्रचलित कर दी गई।
भारत के बाशिन्दों में इस दुष्प्रचार का कुछ प्रभाव भी पड़ा, और वे भी इस्लाम को ‘मुहम्मडन-इज़्म’ मान बैठे। ऐसा मानने में इस तथ्य का भी अपना योगदान रहा है कि यहां पहले से ही सिद्धार्थ गौतम बुद्ध जी, ‘‘बौद्ध धर्म’’ के; और महावीर जैन जी ‘‘जैन धर्म’’ के ‘प्रवर्तक’ के रूप में सर्वपरिचित थे। इन ‘धर्मों’ (वास्तव में ‘मतों’) का इतिहास लगभग पौने तीन हज़ार वर्ष पुराना है। इसी परिदृश्य में भारतवासियों में से कुछ ने पाश्चात्य साम्राज्यिों की बातों (मुहम्मडन-इज़्म, और इस्लाम का इतिहास मात्र 1400 वर्ष की ग़लत अवधारणा) पर विश्वास कर लिया।
 

‘ईमान’ का अर्थ
ईमान का अर्थ जानना और मानना है। जो व्यक्ति ईश्वर के एक होने को और उसके वास्तविक गुणों और उसके क़ानून और नियम और उसके दंड और पुरस्कार को जानता हो और दिल से उस पर विश्वास रखता हो उसको ‘मोमिन’ (ईमान रखने वाला) कहते हैं। ईमान का परिणाम यह है कि मनुष्य मुस्लिम अर्थात् अल्लाह का आज्ञाकारी और अनुवर्ती हो जाता है।
ईमान की इस परिभाषा से विदित है कि ईमान के बिना कोई मनुष्य मुस्लिम नहीं हो सकता। इस्लाम और ईमान में वही सम्बन्ध है जो वृक्ष और बीज में होता है। बीज के बिना तो वृक्ष उग ही नहीं सकता। हाँ, यह अवश्य हो सकता है कि बीज भूमि में बोया जाए, परन्तु भूमि ख़राब होने के कारण या जलवायु अच्छी प्राप्त न होने के कारण वृक्ष दोषयुक्त उगे। ठीक इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति सिरे से ईमान ही न रखता हो तो यह किसी तरह संभव नहीं कि वह ‘‘मुस्लिम’’ हो। हाँ, यह अवश्य संभव है कि किसी के दिल में ईमान हो परन्तु अपने संकल्प की कमज़ोरी या अपूर्ण शिक्षा-दीक्षा और बुरे लोगों के संगत के प्रभाव से वह पूरा और पक्का मुस्लिम न हो।
आज्ञापालन के लिए ज्ञान और विश्वास की आवश्यकतापिछले अध्याय में आप जान चुके हैं कि इस्लाम वास्तव में पालनकर्ता (ईश्वर) के आज्ञापालन का नाम है। अब हम बताना चाहते हैं कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ ईश्वर की आज्ञा का पालन उस समय तक नहीं कर सकता, जब तक उसे कुछ बातों का ज्ञान न हो, और वह ज्ञान, विश्वास (Faith) की सीमा तक पहुँचा हुआ न हो।
सबसे पहले तो मनुष्य को ईश्वर की सत्ता पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए, क्योंकि यदि उसे यह विश्वास न हो कि ईश्वर है तो वह उसका आज्ञापालन कैसे करेगा। इसके साथ ईश्वरीय गुणों का ज्ञान भी ज़रूरी है। जिस व्यक्ति को यह मालूम न हो कि ईश्वर एक है और प्रभुत्व में कोई उसका साझी नहीं, वह दूसरों के सामने सिर झुकाने और हाथ फैलाने से कैसे बच सकता है? जिस व्यक्ति को इस बात का यक़ीन न हो कि ईश्वर सब-कुछ देखने और सुनने वाला है, और हर चीज़ की ख़बर रखता है, वह अपने आपको ईश्वर की अवज्ञा से कैसे रोक सकता है? इस बात पर विचार करने से आपको मालूम होगा कि विचार और स्वभाव और इस्लाम के सीधे मार्ग पर चलने के लिए मनुष्य में जिन गुणों का होना आवश्यक है वे गुण उस समय तक उसमें नहीं आ सकते जब तक कि उसे ईश-गुणों की ठीक-ठीक जानकारी न हो और यह ज्ञान केवल जान लेने तक सीमित न रहे बल्कि उसे विश्वास के साथ दिल में बैठ जाना चाहिए, ताकि मनुष्य का मन उसके ज्ञान-विरोधी विचारों से, और उसका जीवन उसके ज्ञान के विरुद्ध आचरण करने से बच सके।
इसके बाद मनुष्य को यह भी मालूम होना चाहिए कि ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का सही तरीक़ा क्या है? किस बात को अल्लाह पसन्द करता है, ताकि उसे अपनाया जाए, और किस बात को अल्लाह नापसन्द करता है, ताकि उससे बचा जाए। इसके लिए ज़रूरी है कि मनुष्य ईश्वर के क़ानून और उसके विधान से भली-भाँति परिचित हो। उसके विषय में उसे पूरा विश्वास हो कि यही अल्लाह का क़ानून और विधान है और इसका अनुसरण करने से अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त हो सकती है, क्योंकि यदि उसे इसका ज्ञान ही न हो तो वह पालन किस चीज़ का करेगा? और यदि ज्ञान तो हो परन्तु पूरा विश्वास न हो, या मन में यह भावना बनी हो कि इस क़ानून और विधान के अतिरिक्त दूसरा क़ानून और विधान भी ठीक हो सकता है, तो उसका भली-भाँति पालन कैसे कर सकता है? फिर मनुष्य को इसका ज्ञान भी होना चाहिए कि ईश्वरीय इच्छा के अनुसार न चलने और उसके पसन्द किए हुए नियम एवं विधान का पालन न करने का नतीजा क्या है और उसके आज्ञापालन का पुरस्कार क्या है? इसके लिए ज़रूरी है कि आख़िरत (परलोक) के जीवन का, ईश्वर के न्यायालय में पेश होने का, अवज्ञा का दंड पाने का और आज्ञापालन पर इनाम पाने का पूरा ज्ञान और विश्वास हो। जो व्यक्ति आख़िरत के जीवन से अपरिचित है वह आज्ञापालन और अवज्ञा दोनों को निष्फल समझता है। उसका विचार तो यह है कि अंत में आज्ञपालन करने वाला और न करने वाला दोनों बराबर ही रहेंगे, क्योंकि दोनों मिट्टी हो जाएँगे। फिर उससे कैसे आशा की जा सकती है कि वह आज्ञापालन की पाबन्दियाँ और तकलीफ़ें उठाना स्वीकार कर लेगा और उन गुनाहों से बचेगा जिनसे इस संसार में कोई हानि पहुँचने का उसको भय नहीं है। ऐसे विश्वास के साथ मनुष्य ईश्वरीय नियम और क़ानून का पालन करने वाला कभी नहीं हो सकता। इसी प्रकार वह व्यक्ति भी आज्ञापालन को दृढ़तापूर्वक अपना नहीं सकता जिसे आख़िरत के जीवन और अल्लाह की अदालत में पेश होने का ज्ञान तो है, परन्तु विश्वास नहीं, इसलिए कि सन्देह और दुविधा के साथ मनुष्य किसी बात पर टिका नहीं रह सकता। आप एक काम को दिल लगाकर उसी समय कर सकेंगे जब आपको विश्वास हो कि यह काम लाभप्रद है। और दूसरे काम से बचने में भी उसी समय स्थिर रह सकते हैं जब आपको पूरा विश्वास हो कि यह काम हानिप्रद है। अतएव मालूम हुआ कि एक तरीके़ पर चलने के लिए उसके फल और परिणाम का ज्ञान होना भी आवश्यक है। और यह ज्ञान ऐसा होना चाहिए जो विश्वास की सीमा तक पहुँचा हुआ हो।
ईमान और इस्लाम की दृष्टि से समस्त मनुष्यों की चार श्रेणियाँ हैं:
जो ईमान रखते हैं और उनका ईमान उन्हें ईश्वर के आदेशों का पूर्ण रूप से अनुवर्ती बना देता है। जो बात ईश्वर को नापसन्द है वे उससे इस तरह बचते हैं जैसे कोई व्यक्ति आग को हाथ लगाने से बचता है और जो बात ईश्वर को पसन्द है उसे वे ऐसे शौक़ से करते हैं जैसे कोई व्यक्ति दौलत कमाने के लिए शौक़ से काम करता है। ये वास्तविक मुस्लिम हैं।
(1) जो ‘ईमान’ तो रखते हैं परन्तु उनके ईमान में इतना बल नहीं कि उन्हें पूर्ण रूप से अल्लाह का आज्ञाकारी बना दे। ये यद्यपि निम्न श्रेणी के लोग हैं, परन्तु फिर भी मुस्लिम ही हैं। ये यदि ईश्वरीय आदेशों की अवहेलना करते हैं तो अपने अपराध की दृष्टि से दंड के भागी हैं; परन्तु उनकी हैसियत अपराधी की है, विद्रोही की नहीं है। इसलिए कि ये सम्राट को सम्राट मानते हैं और उसके क़ानून को क़ानून होना स्वीकार करते हैं।
(2) वे जो ईमान नहीं रखते परन्तु देखने में वे ऐसे कर्म करते हैं जो ईश्वरीय क़ानून के अनुकूल दिखाई देते हैं। ये वास्तव में विद्रोही हैं। इनका वाह्य सत्कर्म वास्तव में ईश्वर का आज्ञापालन और अनुवर्तन नहीं है। अतः इसका कुछ भी मूल्य नहीं। इनकी मिसाल ऐसे व्यक्ति जैसी है जो सम्राट को सम्राट नहीं मानता और उसके क़ानून को क़ानून ही नहीं स्वीकार करता। यह व्यक्ति यदि देखने में कोई ऐसा काम कर रहा हो जो क़ानून के विरुद्ध न हो, तो आप यह नहीं कह सकते कि वह सम्राट के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने वाला और उसके क़ानून का अनुवर्ती है। उसकी गणना तो प्रत्येक अवस्था में विद्रोहियों में ही होगी।
(3) वे जो ईमान भी नहीं रखते और कर्म की दृष्टि से भी दुष्ट और दुराचारी हैं। ये निकृष्टतम श्रेणी के लोग हैं, क्योंकि ये विद्रोही भी हैं और बिगाड़ पैदा करने वाले भी।
मानवीय श्रेणी के इस वर्गीकरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ईमान वास्तव में मानवीय सफलता का आधार है। इस्लाम, चाहे वह पूर्ण हो या अपूर्ण, केवल ईमान रूपी बीज से पैदा होता है। जहाँ ईमान न होगा, वहाँ ईमान की जगह ‘कुफ़्र’ होगा जिसका दूसरा अर्थ ईश्वर के प्रति विद्रोह है, चाहे निकृष्टतम कोटि का विद्रोह हो या न्यूनतम स्तर का।
ज्ञान-प्राप्ति का साधन
ईशाज्ञापालन के लिए ‘ईमान’ की आवश्यकता मालूम हो जाने के बाद अब प्रश्न यह है कि ईश्वर के गुण और उसके पसन्दीदा क़ानून और आख़िरत (परलोक) के जीवन के सम्बन्ध में सच्चा ज्ञान और ऐसा ज्ञान जिस पर विश्वास किया जा सके, कैसे प्राप्त हो सकता है?
पहले हम बयान कर चुके हैं कि जगत में हर तरफ़ ईश्वर की कारीगरी की निशानियाँ मौजूद हैं, जो इस बात की गवाह हैं कि इस कारख़ाने को एक ही कारीगर ने बनाया है और वही इसको चला रहा है और इन निशानियों में सर्वश्रेष्ठ ईश्वर के समस्त गुणों की छवि दीख पड़ती है। उसकी तत्वदर्शिता (Wisdom) उसका ज्ञान, उसका सामथ्र्य, उसकी दयालुता, उसकी पालन-क्रिया, उसका प्रकोप, तात्पर्य यह है कि कौन-सा गुण है जिसकी गरिमा उसके कामों से व्यक्त न होती हो, परन्तु मनुष्य की बुद्धि और उसकी योग्यता से इन चीज़ों को देखने और समझने में बहुधा भूल हुई है। ये समस्त निशानियाँ आँखों के सामने मौजूद हैं परन्तु फिर भी किसी ने कहा: ईश्वर दो हैं और किसी ने कहा तीन हैं, किसी ने अनगिनत ईश्वर मान लिए। किसी ने प्रभुत्व के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और कहा: एक वर्षा का प्रभु है, एक वायु का प्रभु है, एक अग्नि का ईश्वर है, तात्पर्य यह कि एक-एक शक्ति के अलग-अलग ईश्वर हैं और एक ईश्वर इन सबका नायक है। इस तरह ईश्वर की सत्ता और उसके गुणों को समझने में लोगों की बुद्धि ने बहुत धोखे खाए हैं जिनके विवरण का यहाँ मौक़ा नहीं।
‘आख़िरत’ (परलोक) के जीवन के विषय में भी लोगों ने बहुत-से असत्य विचार निर्धारित किए। किसी ने कहा कि मनुष्य मर कर मिट्टी हो जाएगा, फिर उसके बाद कोई जीवन नहीं। किसी ने कहा मनुष्य बार-बार इस दुनिया में जन्म लेगा और अपने कर्मों के अनुसार दंड या पुरस्कार प्राप्त करेगा।
ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने के लिए जिस क़ानून की पाबन्दी आवश्यक है उसको तो स्वयं अपनी बुद्धि से निर्धारित करना और भी अधिक कठिन है।
यदि मनुष्य के पास अत्यंत ठीक बुद्धि हो और उसकी ज्ञान सम्बन्धी योग्यता अत्यन्त उच्चकोटि की हो, तब भी वर्षों के अनुभवों और सोच-विचार के पश्चात् वह मात्रा किसी हद तक ही इन बातों के बारे में कोई राय क़ायम कर सकेगा। और फिर भी उसको पूर्ण विश्वास न होगा कि उसने पूर्ण रूप से सत्य को जान लिया है, यद्यपि बुद्धि और ज्ञान की पूर्ण रूप से परीक्षा तो इसी प्रकार हो सकती थी कि मनुष्य को बिना किसी मार्गदर्शन के छोड़ दिया जाता, फिर जो लोग अपनी कोशिश और योग्यता से सत्य और सच्चाई तक पहुँच जाते वही सफल होते और जो न पहुँचते वे असफल रहते, परन्तु ईश्वर ने अपने बन्दों को ऐसी कठिन परीक्षा में नहीं डाला। उसने अपनी दया से स्वयं मनुष्यों ही में ऐसे मनुष्य पैदा किए जिनको अपने गुणों का यथार्थ ज्ञान दिया। वह तरीक़ा भी बताया जिससे मनुष्य संसार में ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन-यापन कर सकता है। आख़िरत (परलोक) के जीवन के सम्बन्ध में भी यथार्थ ज्ञान प्रदान किया और उन्हें आदेश दिया कि दूसरे मनुष्यों तक यह ज्ञान पहुँचा दें। ये अल्लाह के पैग़म्बर (सन्देष्टा) हैं। जिस साधन से अल्लाह ने उनको ज्ञान दिया है उसका नाम वह्य (Revelation, ईशप्रकाशना) है। और जिस ग्रंथ में उन्हें यह ज्ञान दिया गया है उसको ईश्वरीय ग्रंथ और अल्लाह का कलाम (ईश-वाणी) कहते हैं। अब मनुष्य और उसकी योग्यता की परीक्षा इसमें है कि वह पैग़म्बर के पवित्र जीवन को देखने और उसकी उच्च शिक्षा पर विचार करने के पश्चात् उस पर ईमान लाता है या नहीं। यदि वह न्यायशील और सत्य-प्रिय है तो सच्ची बात और सच्चे मनुष्य की शिक्षा को मान लेगा और परीक्षा में सफल हो जाएगा। और यदि उसने न माना तो इन्कार का अर्थ यह होगा कि उसने सत्य और सच्चाई को समझने और स्वीकार करने की क्षमता खो दी है। यह इन्कार उसको परीक्षा में असफल कर देगा और ईश्वर और उसके क़ानून और आख़िरत के जीवन के विषय में वह कभी सही ज्ञान प्राप्त न कर सकेगा।
(1) परोक्ष (ग़ैब) पर ‘ईमान’देखिए जब आपको किसी चीज़ का ज्ञान नहीं होता तो आप ज्ञान वाले व्यक्ति की खोज करते हैं और उसके आदेश के अनुसार आचरण करते हैं। आप बीमार होते हैं तो ख़ुद अपना इलाज नहीं कर लेते बल्कि डाक्टर के पास जाते हैं। डाक्टर का प्रामाणिक होना, उसका अनुभवी होना, उसके हाथ से बहुत से रोगियों का अच्छा होना, ये ऐसी बातें हैं जिनके कारण आप ‘ईमान’ ले आते हैं कि उत्तम इलाज के लिए जिस योग्यता की आवश्यकता है वह उस डाक्टर में पाई जाती है। इसी ईमान (विश्वास) के कारण वह जिस दवा को जिस ढंग से सेवन करने को कहता है उसका आप सेवन करते हैं और जिस-जिस चीज़ से बचने का हुक्म देता है उससे बचते हैं। इसी तरह क़ानून के मामले में आप वकील पर ‘ईमान’ लाते हैं और उसके आदेशों का पालन करते हैं। शिक्षा के विषय में अध्यापक पर ‘ईमान’ लाते हैं और वह जो कुछ आपको बताता है उसको मानते चले जाते हैं। आपको कहीं जाना हो, और रास्ता मालूम न हो तो किसी जानकार व्यक्ति पर ‘ईमान’ लाते हैं और जो मार्ग वह आपको बताता है उसी पर चलते हैं। तात्पर्य यह है कि दुनिया के हर मामले में आपको जानकारी और ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी जानने वाले आदमी पर ‘ईमान’ लाना पड़ता है और उसके आदेशों का पालन करने पर आप मजबूर होते हैं, इसी का नाम परोक्ष (ग़ैब) पर ईमान है।
परोक्ष पर ईमान का अर्थ यह है कि जो कुछ आपको मालूम नहीं उसका ज्ञान आप जानने वालों से प्राप्त करें। और उसपर विश्वास कर लें। ईश्वर की सत्ता और गुण से आप परिचित नहीं हैं। आपको यह भी मालूम नहीं कि उसके फ़रिश्ते उसके आदेश के अन्तर्गत सम्पूर्ण विश्व का काम कर रहे हैं और आपको हर तरफ़ से घेरे हुए हैं। आपको यह भी ख़बर नहीं कि ईश्वरीय इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का तरीक़ा क्या है? आपको आख़िरत (परलोक) के जीवन का भी सही हाल मालूम नहीं। इन सब बातों का ज्ञान आपको एक ऐसे मनुष्य के द्वारा प्राप्त होता है जिसकी सच्चाई, सत्यवादिता, ईश-भय, पवित्रतम जीवन और तत्वदर्शिता-सम्बन्धी बातों को देखकर आप मानते हैं कि वह जो कुछ कहता है, सच कहता है और उसकी सब बातें विश्वास करने योग्य हैं। यही परोक्ष पर ईमान है। अल्लाह का आज्ञापालन और उसकी इच्छा के अनुसार आचरण करने के लिए परोक्ष पर ईमान आवश्यक है, क्योंकि पैग़म्बर के सिवा किसी और साधन से आपको सही ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता और सही ज्ञान के बिना आप इस्लाम के तरीके़ पर ठीक-ठीक चल नहीं सकते।
(2) ईश्वर पर ईमान
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा यह है, ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’। अल्लाह के सिवा कोई ‘इलाह’ (पूज्य) नहीं।
यह ‘कलमा’ (उक्ति) इस्लाम की बुनियाद है। जो चीज़ मुस्लिम को एक ‘काफ़िर’ (इन्कारी), एक मुश्रिक (अनेकेश्वरवादी) और एक नास्तिक (Atheist) से अलग करती है वह यही है। इसी ‘कलमे’ के मानने और न मानने से मनुष्य और मनुष्य के बीच बड़ा अन्तर हो जाता है। इसको मानने वाले एक समुदाय (Community) बन जाते हैं और न मानने वाले दूसरा समुदाय। इसके मानने वालों के लिए संसार से लेकर ‘आख़िरत’ (परलोक) तक उन्नति, सफलता और प्रतिष्ठा है और न मानने वालों के लिए निराशा, अपमान और तिरस्कार।
इतना बड़ा अन्तर जो मनुष्य और मनुष्य के बीच हो जाता है, वह केवल थोड़े से शब्दों के उच्चारण का नतीजा नहीं है। मुँह से यदि आप दस लाख बार ‘कुनैन, कुनैन’ पुकारते रहें और खाएँ नहीं, तो आपका ज्वर कदापि न उतरेगा। इसी प्रकार यदि मुख से ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ कह दिया, परन्तु यह न समझे कि इसका क्या अर्थ है और इन शब्दों का उच्चारण करके आपने कितनी बड़ी चीज़ को मान लिया है और इसके मानने से आप पर कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी आ गई है, तो ऐसा बेसमझी का उच्चारण कुछ विशेष लाभदायक नहीं। वास्तव में अन्तर तो उस समय होगा जब ‘‘ला इला-ह इल्लल्लाह’’ का अर्थ आपके दिल में उतर जाए, उसके अर्थ पर आपको पूर्ण विश्वास हो जाए। उसके विरुद्ध जितने भी विचार और धारणाएँ हैं वे सब आपके दिल से निकल जाएँ और इस कलमे का प्रभाव आपके मन और मस्तिष्क पर कम-से-कम इतना गहरा हो जितना कि इस बात का प्रभाव है कि आग जलानेवाली चीज़ है और ज़हर मार डालनेवाली चीज़। अर्थात् जिस प्रकार आग की विशेषता पर ईमान आपको चूल्हे में हाथ डालने से रोकता है और ज़हर की विशेषता पर ‘ईमान’ आपको ज़हर खाने से बचाता है, उसी प्रकार ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ पर ईमान आपको ‘शिर्क’ (बहुदेववाद) और ‘कुफ़्र’ (अधर्म) और नास्तिकता की हर छोटी-से-छोटी बात से भी रोक दे, चाहे वह विश्वास सम्बन्धी हो या व्यवहार सम्बन्धी।
‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का अर्थ
सबसे पहले यह समझिए कि ‘इलाह’ किसे कहते हैं। अरबी भाषा में ‘इलाह’ का अर्थ है ‘इबादत के योग्य’, अर्थात् वह सत्ता जो अपनी महिमा, और तेज और उच्चता की दृष्टि से इस योग्य हो कि उसकी पूजा की जाए और बन्दगी और ‘इबादत’ मंे उसके आगे सिर झुका दिया जाए। ‘‘इलाह’’ के अर्थ में यह भाव भी शामिल है कि वह अपार सामथ्र्य और शक्ति का अधिकारी है जिसके विस्तार को समझने में मानव-बुद्धि चकित रह जाए। ‘इलाह’ के अर्थ में यह बात भी शामिल है कि वह स्वयं किसी का मोहताज और आश्रित न हो और सब अपने जीवन-सम्बन्धी मामलों में उसपर आश्रित और उससे सहायता पाने के लिए मजबूर हों। ‘‘इलाह’’ शब्द में ‘छिपे होने’ का भाव भी पाया जाता है, अर्थात् ‘इलाह’ उसको कहेंगे जिस की शक्तियाँ रहस्यमय हों। फ़ारसी भाषा में ‘‘ख़ुदा’’ और हिन्दी में ‘‘देवता’’ और अंग्रेज़ी में ‘‘गॉड’’ का अर्थ भी इससे मिलता-जुलता है और संसार की अन्य भाषाओं में इस अर्थ के लिए विशेष शब्द पाए जाते हैं। (मिसाल के तौर पर ग्रीक में इसके लिए डेओस (Deo’s) शब्द आता है। लेटिन में डेऊस (Deus), गोथिक (Gothic) में गुथ (Guth), डैनिश (Danish) में गुड (Gud), जर्मन में गाट (Gott)                                     
‘अल्लाह’ शब्द वास्तव में ईश्वर की व्यक्तिवाचक संज्ञा है। ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का शाब्दिक-अर्थ यह होगा कि कोई ‘इलाह’ नहीं है सिवाय उस विशेष सत्ता के जिसका नाम अल्लाह है। मतलब यह है कि सारे विश्व में अल्लाह के सिवा कोई एक सत्ता भी ऐसी नहीं जो पूजने योग्य हो। उसके सिवा कोई इसका हक़ नहीं रखता कि इबादत, उपासना और बन्दगी और आज्ञापालन में उसके आगे सिर झुकाया जाए। केवल वही एक सत्ता समूचे जगत की मालिक और हाकिम है। सब चीज़ें उसकी मोहताज हैं, सब उसी की सहायता पाने पर मजबूर हैं। उसका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा संभव नहीं और उसकी सत्ता और व्यक्तित्व को समझने में बुद्धि दंग है।
विस्तृत ईमान
आगे बढ़ने से पहले आपको एक बार फिर उन जानकारियों का जायज़ा ले लेना चाहिए जो आपको पिछले अध्यायों में प्राप्त हुई हैं।
(1) यद्यपि इस्लाम का अर्थ केवल अल्लाह का आज्ञापालन है, परन्तु ईश्वर की सत्ता, गुण और उसकी इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने का तरीक़ा और ‘आख़िरत’ (परलोक) के दंड और पुरस्कार का यथार्थ ज्ञान केवल ईश्वर के पैग़म्बर ही के द्वारा प्राप्त हो सकता है, इसलिए इस्लाम धर्म की वास्तविक परिभाषा यह हुई कि पैग़म्बर की शिक्षा पर ईमान लाना और उसके बताए हुए तरीक़े पर अल्लाह की बन्दगी करना ‘इस्लाम’ है। जो व्यक्ति पैग़म्बर के माध्यम को छोड़कर सीधे ईश्वर के आज्ञापालन और उसके आदेशों के पालन करने का दावा करे वह मुस्लिम नहीं है।
(2) प्राचीनकाल में अलग-अलग जातियों के लिए अलग-अलग पैग़म्बर आते थे और एक ही जाति में एक के बाद दूसरे कई पैग़म्बर आया करते थे। उस समय हर जाति के लिए ‘इस्लाम’ उस धर्म का नाम था जो ख़ास उसी जाति के पैग़म्बर या पैग़म्बरों ने सिखाया, यद्यपि इस्लाम की वास्तविकता हर देश में और हर युग में एक ही थी; परन्तु धर्म-विधान (शरीअतें) अर्थात् ‘क़ानून’, और ‘इबादत’ (उपासना) के तरीके़ कुछ भिन्न थे। इसलिए एक जाति के लिए दूसरी जाति के पैग़म्बरों का अनुसरण ज़रूरी न था, यद्यपि ‘ईमान’ सब पर लाना ज़रूरी था।
(3) हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) जब पैग़म्बर नियुक्त किए गए, तो आपके द्वारा इस्लाम की शिक्षा को पूर्ण कर दिया गया और सम्पूर्ण संसार के लिए एक ही धर्म-विधान (शरीअत) भेजा गया। आपकी ‘नुबूवत’ (पैग़म्बरी) किसी विशेष जाति या देश के लिए नहीं, बल्कि आदम की समस्त सन्तान के लिए है और हमेशा के लिए है। ‘इस्लाम’ के जो धर्म-विधान (शरीअतें) पिछले पैग़म्बरों ने प्रस्तुत किए थे, वे सब हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के आने के पश्चात् मंसूख़ (निरस्त) कर दिए गए और अब प्रलय आने तक न कोई नबी (पैग़म्बर) आने वाला है, और न कोई दूसरा धर्म-विधान (शरीअत) ईश्वर की ओर से उतरनेवाला है। अतः अब ‘इस्लाम’ केवल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के अनुसरण का नाम है। आपकी नुबूवत (पैग़म्बरी) को मानना और आप (सल्ल॰) के भरोसे पर उन सब बातों को मानना जिन पर ईमान लाने की आप (सल्ल॰) ने शिक्षा दी है और आप (सल्ल॰) के समस्त आदेशों को ईश्वरीय आदेश समझकर उनका पालन करना ‘इस्लाम’ है। अब कोई और ऐसा व्यक्ति ईश्वर की ओर से नियुक्त होने वाला नहीं है जिसको मानना मुस्लिम (ईश्वर का आज्ञाकारी) होने के लिए आवश्यक हो और जिसे न मानने से मनुष्य ‘काफ़िर’ (इन्कारी) हो जाता हो।
आइए अब देखें कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने किन-किन बातों पर ‘ईमान’ लाने की शिक्षा दी है, वे कैसी सच्ची बातें हैं और उनको मानने से मनुष्य का पद कितना ऊँचा हो जाता है।
‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ की वास्तविकतायह तो केवल शब्दों का अर्थ था, अब इसकी हक़ीक़त को समझने की कोशिश कीजिए।
मानव के प्राचीन-से-प्राचीन इतिहास के जो वृत्तान्त हम तक पहुँचे हैं और प्राचीन-से-प्राचीन जातियों के जो भग्नावशेष (खंडहर) और चिन्ह देखे गए हैं, उनसे मालूम होता है मनुष्य ने हर युग में किसी न किसी को ‘ईश’ माना है और किसी न किसी की ‘इबादत’ (उपासना) अवश्य की है। अब भी संसार में जितनी जातियाँ हैं, चाहे वे नितांत बर्बर हों या पूरी तरह असभ्य, उन सब में यह बात पाई जाती है कि वे किसी को ईश्वर मानती हैं और उसकी इबादत करती हैं। इससे मालूम हुआ कि मानव-स्वभाव में ईश्वर का ख़याल बैठा हुआ है, उसके अन्तर में कोई ऐसी चीज़ है जो उसे मजबूर करती है कि किसी को ईश्वर माने और उसकी उपासना (इबादत) करे।
प्रश्न उभरता है कि वह क्या चीज़ है? आप स्वयं अपने अस्तित्व पर और समस्त मनुष्यों की दशा को देखकर इस प्रश्न का उत्तर मालूम कर सकते हैं।
मनुष्य वास्तव में बन्दा (दास, सेवक, उपासक) ही पैदा हुआ है। वह स्वभावतः आश्रित और मोहताज है, निर्बल है, निर्धन है। अनगिनत चीज़ें हैं जो उसके अस्तित्व को स्थिर रखने के लिए आवश्यक हैं, परन्तु उनपर उसे अधिकार प्राप्त नहीं है, आप-से-आप वे उसे मिलती भी हैं और उससे छिन भी जाती है।
बहुत-सी चीज़ें हैं जो उसके लिए लाभदायक हैं। वह उनको प्राप्त करना चाहता है, परन्तु कभी ये उसको मिल जाती हैं और कभी नहीं मिलतीं, क्योंकि उनको प्राप्त करना बिल्कुल उसके वश में नहीं है।
बहुत-सी चीजे़ं हैं जो उसको हानि पहुँचाती हैं। उसके जीवन भर के परिश्रम को पल भर में नष्ट कर देती हैं। उसकी कामनाओं को मिट्टी में मिला देती हैं। उसको बीमार करती और तबाही में डालती हैं। वह उनको दूर करना चाहता है कभी वे दूर हो जाती हैं और कभी नहीं होतीं। इससे वह जान लेता है कि उनका आना और न आना, दूर होना या न होना उसके वश में नहीं है।
बहुत-सी चीज़ें हैं जिनकी शान-शौकत और बड़ाई को देखकर वह हैरान हो जाता है। पहाड़ों को देखता है, नदियों को देखता है। बड़े-बड़े भयंकर और हिंसक जानवरों को देखता है। हवाओं के झकोर और तूफ़ान और पानी की बाढ़ और भूकम्प को देखता है, बादलों का गरजना और घटाओं की कालिमा और बिजली की कड़क, चमक और मूसलाधार बारिश के दृश्य उसके सामने आते हैं। सूर्य, चन्द्र और तारे उसे गतिशील दिखाई देते हैं। वह देखता है कि सब चीज़ें कितनी बड़ी, कितनी शक्तिशाली, कितनी विराट और भव्य हैं और उनकी अपेक्षा वह स्वयं कितना निर्बल और तुच्छ है।
ये विभिन्न दृश्य और स्वयं अपनी विशेषताओं की विभिन्न स्थितियों को देखकर उसके मन में आप-से-आप अपनी बन्दगी (दासता), पराश्रय और दुर्बलता महसूस होती है और जब यह अनुभूति होती है, तो इसके साथ ही स्वयं ईश्वर की कल्पना भी उभर आती है। वह उन हाथों का ख़याल करता है जो इतनी बड़ी शक्तियों के मालिक हैं। उनकी बड़ाई का एहसास उसे विवश करता है कि वह उनकी इबादत में सिर झुका दे। उनकी शक्ति का आभास उसे विवश करता है कि वह उनके आगे अपनी दीनता प्रस्तुत करे। उनकी लाभ पहुँचाने वाली शक्तियों की अनुभूति उसे विवश करती है कि वह अपनी परेशानी दूर करने के लिए उनके आगे हाथ फैलाए और उनकी हानि पहुँचाने वाली शक्तियों की अनुभूति उसे विवश करती है कि वह उनसे डरे और उनके प्रकोप से बचने के प्रयत्न करे।
अज्ञान की निम्नतम अवस्था में मनुष्य यह समझता है कि जो चीज़ें उसको भव्य और शक्तिवाली दीख पड़ती हैं या किसी तरह लाभ या हानि पहुँचाती हुई प्रतीत होती हैं, वही ईश्वर है, इसी लिए वह जानवरों और नदियों और पहाड़ों को पूजता है। पृथ्वी की पूजा करता है। अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य की पूजा करने लगता है।
यह अज्ञान जब कुछ कम होता है और कुछ ज्ञान का प्रकाश आता है तो उसे ज्ञात होता है कि ये सब चीज़ें तो स्वयं उसी की तरह मोहताज और कमज़ोर हैं। बड़े-से-बड़ा जानवर भी एक तुच्छ मच्छर की भाँति मरता है। बड़ी-से-बड़ी नदियाँ शुष्क हो जाती हैं और चढ़ती-उतरती रहती हैं। पहाड़ों को स्वयं मनुष्य तोड़ता-फोड़ता है। भूमि का फलना-पू$लना स्वयं भूमि के अपने अधिकार में नहीं। जब पानी उसका साथ नहीं देता तो वह सूख जाती है। पानी भी विवश है। उसका आना हवा पर निर्भर करता है। हवा को भी अपने पर अधिकार प्राप्त नहीं। उसका उपयोगी या अनुपयोगी होना दूसरे कारणों के अधीन है। चन्द्रमा और सूर्य और तारे भी किसी नियम के अधीन हैं। उस नियम के विरुद्ध वे ज़रा भी हिल नहीं सकते। अब उसका ध्यान गुप्त और रहस्यमय शक्तियों की ओर जाता है। वह सोचता है कि इन प्रत्यक्ष चीज़ों के पीछे कुछ गुप्त शक्तियाँ हैं जो इनपर शासन कर रही हैं और सब कुछ उन्हीं के अधिकार में है। यहीं से अनेक ईश और देवताओं की कल्पना का उदय होता है। प्रकाश और हवा और पानी और रोग, और स्वास्थ्य और विभिन्न दूसरी चीज़ों के ईश्वर अलग-अलग मान लिए जाते हैं और उनको काल्पनिक रूप देकर उनकी पूजा की जाती है।
इसके बाद जब और अधिक ज्ञान का प्रकाश आता है, तो मनुष्य देखता है कि संसार के प्रबन्ध और व्यवस्था में एक अटल नियम और एक बड़े ज़ाब्ते की पाबन्दी पाई जाती है। हवाओं के वेग, वर्षा के आगमन, ग्रहों की गति, ऋतुओं के परिवर्तन में कैसी नियमबद्धता पाई जाती है? किस प्रकार असंख्य शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ मिलकर काम कर रही हैं? कैसा अटल नियम है। जो समय जिस काम के लिए निश्चित कर दिया गया है, ठीक उसी समय पर विश्व के समस्त साधन एकत्रा हो जाते हैं और कार्यों को पूरा करने हेतु एक-दूसरे को अपना योगदान देते हैं? विश्व-व्यवस्था का यह तालमेल देखकर मुशरिक (बहुदेववादी) व्यक्ति यह मानने के लिए मजबूर हो जाता है कि एक बड़ा ईश्वर भी है जो इन समस्त छोटे-छोटे ईश्वरों पर शासन कर रहा है, अन्यथा यदि सब एक-दूसरे से अलग और बिल्कुल स्वतंत्र होते तो संसार की पूरी-की-पूरी व्यवस्था बिगड़ कर रह जाती। वह इस बड़े ईश्वर को ‘‘अल्लाह’’ और परमेश्वर और ‘‘ख़ुदा-ए-ख़ुदाएगाँ’’ (ईश्वरों का ईश्वर) आदि नामों से संबोधित करता है, परन्तु इबादत और पूजा में उसके साथ छोटे ईश्वरों को भी शरीक रखता है। वह समझता है कि ‘ख़ुदाई’ और ईश-राज्य (The divine kingdom of God) भी सांसारिक राज्य जैसे हैं। जिस प्रकार संसार में एक सम्राट होता है और उसके बहुत से मंत्री, विश्वासपात्र प्रबन्धक और व्यवस्थापक और दूसरे अधिकार प्राप्त पदाधिकारी होते हैं, उसी प्रकार विश्व में भी एक बड़ा ईश्वर है और बहुत-से छोटे-छोटे ईश्वर उसके अधीन हैं। जब तक छोटे ईश्वरों को प्रसन्न न किया जाए बड़े ईश्वर तक पहुँच न हो सकेगी। इसलिए उनकी भी ‘इबादत’ और पूजा करो, उनके आगे भी हाथ फैलाओ, उनके ग़ुस्से से भी डरो, उनको बड़े ईश्वर तक पहुँचने का साधन बनाओ और भेंट और उपहार से उन्हें प्रसन्न रखो।
फिर जब ज्ञान और बढ़ता है तो ईश्वरों की संख्या घटने लगती है। जितने काल्पनिक ईश्वर अज्ञानियों ने गढ़ रखे हैं उनमें से एक-एक के बारे में विचार करने से मनुष्य को मालूम होता चला जाता है कि वे ईश्वर नहीं हैं। हमारी तरह बन्दे हैं, बल्कि हमसे भी अधिक मजबूर हैं। इस तरह वह उनको छोड़ता चला जाता है यहाँ तक कि अन्त में केवल एक ईश्वर रह जाता है, परन्तु उस एक के विषय में फिर भी उसके विचारों में बहुत कुछ अज्ञान बाक़ी रह जाता है। कोई यह ख़याल करता है कि ईश्वर हमारी तरह शरीरधारी है और एक स्थान पर बैठा हुआ प्रभुता चला रहा है। कोई यह समझता है कि ईश्वर पत्नी और बच्चेवाला है और मनुष्य की तरह उसके यहाँ भी सन्तानों की परम्परा है। कोई यह कल्पना करता है कि ईश्वर मानव-रूप में भूलोक पर आता है, कोई कहता है कि ईश्वर इस दुनिया के कारख़ाने को चलाकर शान्त बैठ गया है और अब कहीं आराम कर रहा है। कोई समझता है कि ईश्वर के यहाँ श्रेष्ठ व्यक्तियों और आत्माओं की सिफ़ारिश ले जाना ज़रूरी है और उनको वसीला और साधन बनाए बिना वहाँ काम नहीं चलता। कोई अपने ख़याल में ईश्वर का एक रूप निश्चित करता है और इबादत और उपासना के लिए उस रूप को अपने सामने रखना ज़रूरी समझता है। इस प्रकार की अनेक भ्रांतियाँ तौहीद (एकेश्वरवाद) को अपनाने पर भी मनुष्य के मन में बाक़ी रह जाती हैं जिनके कारण वह ‘शिर्व$’ (बहुदेववाद) या ‘कुफ़्र’ (अधर्म) में लिप्त होता है और यह सब अज्ञान का नतीजा है।
सबसे ऊपर ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का दर्जा है। यह वह ज्ञान है जो स्वयं ईश्वर ने हर ज़माने में अपने ‘नबियों’ (पैग़म्बरों) के द्वारा मनुष्य के पास भेजा है। यही ज्ञान सबसे पहले मनुष्य हज़रत आदम को देकर पृथ्वी पर उतारा गया था। यही ज्ञान आदम (अलैहि॰) के पश्चात हज़रत नूह, हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा और दूसरे पैग़म्बरों को दिया गया था। फिर इसी ज्ञान को लेकर सबके अन्त में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) आए। यह विशुद्ध ज्ञान है जिसमें ज़रा-सा भी अज्ञान नहीं है। ऊपर हमने शिर्क और मूर्ति पूजा और कुफ़्र के जितने रूप लिखे हैं उन सबमें मनुष्य इसी कारण ग्रस्त हुआ कि उसने पैग़म्बरों की शिक्षा से मुँह मोड़कर स्वयं अपनी अनुभव-शक्ति और अपनी बुद्धि पर भरोसा किया। तो आइए हम बताएँ कि इस छोटे से वाक्य में कितनी बड़ी वास्तविकता का उल्लेख किया गया है।
(1) सबसे पहली चीज़ ईश्वरत्व (Divinity) की कल्पना है। यह विशाल विश्व जिसके आदि और अन्त और विस्तार का ख़याल करने से हमारी बुद्धि थक जाती है, जो न मालूम कितने समय से चला आ रहा है और न मालूम कितने समय तक चलता ही रहेगा, जिसमें असंख्य जीव आदि उत्पन्न हुए और होते जा रहे हैं, जिसमें ऐसे-ऐसे आश्चर्यजनक चमत्कार हो रहे हैं कि उनको देखकर बुद्धि दंग हो जाती है। इस विश्व में प्रभुता उसी की हो सकती है जो असीम हो, सदैव से हो और सदैव रहे, किसी का मोहताज न हो, निस्प्रह, अपेक्षारहित और परम स्वतंत्र हो, सर्वशक्तिमान हो। तत्वदर्शी (All-wise) और विवेकशील हो, सर्वज्ञ हो और कोई चीज़ उससे छिपी हुई न हो। सब पर उसका वश हो और कोई उसके आदेश का उल्लंघन न कर सके, अपार शक्ति का अधिकारी हो और विश्व की सभी चीज़ों को उससे जीवन और आजीविका-सामग्री मिले। दोष, अपूर्णता और हर प्रकार की कमज़ोरियों से रहित हो और उसके कामों में कोई हस्तक्षेप न कर सके।
(3) ईश्वरत्व के इन समस्त गुणों का केवल एक व्यक्तित्व में एकत्र होना आवश्यक है। यह असंभव है कि दो व्यक्तित्व में ये गुण समान रूप से पाए जाते हों, क्योंकि सब पर प्रभावपूर्ण अधिकार रखनेवाला और सबका शासक तो एक ही हो सकता है। यह भी संभव नहीं है कि ये गुण विभाजित होकर बहुत से ईश्वरों में बंट जाएँ, क्योंकि यदि शासक एक हो और सर्वज्ञ दूसरा और दाता तीसरा तो प्रत्येक ईश्वर दूसरे पर निर्भर होगा। और यदि एक ने दूसरे का साथ न दिया तो सम्पूर्ण संसार पलक झपकते ही छिन्न-भिन्न हो जाएगा। यह भी संभव नहीं कि ये गुण एक से दूसरे में भेजे जा सवें$ अर्थात् कभी एक ईश्वर में पाए जाएँ और कभी दूसरे में, क्योंकि जो ईश्वर स्वयं जीवित रहने की शक्ति न रखता हो वह सम्पूर्ण जगत को जीवन प्रदान नहीं कर सकता, और जो ईश्वर ख़ुद अपने ईश्वरत्व की हिफ़ाज़त न कर सकता हो वह इतने बड़े जगत पर शासन नहीं कर सकता। अपितु आपको ज्ञान का जितना अधिक प्रकाश मिलेगा उतना ही अधिक आपको विश्वास होता जाएगा कि ईश्वरत्व के गुणों का केवल एक व्यक्तित्व में होना आवश्यक है।
(4) ईश्वरत्व की इस पूर्ण और सच्ची कल्पना को ध्यान में रखिए, फिर सम्पूर्ण जगत पर नज़र डालिए। जितनी चीज़ें आप देखते हैं, जितनी चीज़ों का अनुभव किसी साधन के द्वारा करते हैं, जितनी चीज़ों तक आपके ज्ञान की पहुँच है उनमें से एक भी उपरोक्त गुणों से युक्त नहीं है। संसार की सारी चीज़ें दूसरों पर आश्रित हैं, अधीन हैं, बनती और बिगड़ती हैं, मरती और जीती हैं। किसी को एक अवस्था में स्थिरता प्राप्त नहीं। किसी को अपने अधिकार से कुछ करने की ताक़त नहीं, किसी को एक सर्वोच्च नियम के विरुद्ध बाल बराबर हिलने का अधिकार नहीं। उनकी दशा स्वयं इसकी गवाह है कि उनमें से कोई ईश्वर नहीं। किसी में ईश्वरत्व की ज़रा-सी भी झलक तक नहीं पाई जाती, किसी का ईश्वरत्व में तनिक भी इख़्तियार नहीं है। यही है अर्थ ‘ला इला-ह’ का।
(5) विश्व की समस्त चीज़ों में ईश्वरत्व का इन्कार कर देने के बाद आपको मानना पड़ता है कि एक और सत्ता है जो सर्वोच्च है, केवल वही समस्त ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न है और उसके सिवा कोई ईश्वर नहीं। यह अर्थ है ‘इल्लल्लाह’ का। यह सबसे बड़ा ज्ञान है। आप जितनी जाँच-पड़ताल और खोज करेंगे आपको यही मालूम होगा कि यही ज्ञान का सिरा भी है और यही ज्ञान की अन्तिम सीमा भी। भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, खगोलशास्त्र (Astronomy), गणित (Maths), जीव-विज्ञान, जन्तु-विज्ञान (Zoology), मानवशास्त्र (Anthropology) तात्पर्य यह कि संसार की वास्तविकता की खोज करनेवाले जितने विज्ञान हैं उनमें से चाहे किसी विज्ञान को ले लीजिए, उसके अध्ययन में जितना आप आगे बढ़ते चले जाएँगे ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ की सच्चाई आप पर अधिक खुलती जाएगी और इसपर आपका यक़ीन बढ़ता जाएगा। आपको शास्त्रीय खोजों के क्षेत्र में हर-क़दम पर अनुभव होगा कि इस सबसे पहली और सबसे बड़ी सच्चाई से इन्कार करने के बाद जगत की हर चीज़ बेकार हो जाती है।

मनुष्य के जीवन पर ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) का प्रभाव
अब हम आपको यह बताएँगे कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ के मानने से मनुष्य के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, और इसको न माननेवाला इस लोक और परलोक में क्यों विफल-मनोरथ हो जाता है।
1. इस ‘कलमे’ पर ‘ईमान’ रखने वाला कभी संकीर्ण दृष्टि नहीं हो सकता। वह एक ऐसे ईश्वर को मानता है जो धरती और आकाश का बनानेवाला और सारे संसार का पालन-पोषण करनेवाला है। इस ईमान के बाद पूरे विश्व में कोई चीज़ भी उसको पराई नहीं दीख पड़ती। वह सबको अपनी ही तरह एक ही मालिक की सम्पत्ति और एक ही सम्राट की प्रजा समझता है। उसकी हमदर्दी और प्रेम और सेवा किसी सीमा में वै़$द नहीं रहती। उसकी दृष्टि वैसी ही व्यापक हो जाती है, जिस तरह ईश्वर का राज्य व्यापक है। यह अवस्था किसी ऐसे व्यक्ति को हासिल नहीं हो सकती जो बहुत से छोटे-छोटे ख़ुदाओं को मानता हो या ईश्वर में मानव के सीमित और अपूर्ण गुण मानता हो या सिरे से ईश्वर में विश्वास ही न रखता हो।
2. यह ‘कलमा’ मनुष्य में उच्चतम कोटि का स्वाभिमान और आत्मगौरव पैदा कर देता है। इसपर विश्वास रखनेवाला जानता है कि केवल एक ईश्वर ही सारी शक्तियों का मालिक है। उसके सिवा हानि-लाभ पहुँचाने वाला कोई भी नहीं। कोई मारने और जिलानेवाला नहीं, कोई अधिकारी और प्रभुत्वशाली नहीं। यह ज्ञान और विश्वास उसको ईश्वर के सिवा समस्त शक्तियों से बेनियाज़ और बेपरवाह और निर्भय कर देता है। उसका सिर सृष्टि के किसी भी जीव या निर्जीव के आगे नहीं झुकता, उसका हाथ किसी के आगे नहीं फैलता, उसके दिल में किसी की बड़ाई का सिक्का नहीं बैठता। यह विशेषता सिवाय ‘‘तौहीद’’ (एकेश्वरवाद) की धारणा के किसी और धारणा से पैदा नहीं होती। शिर्व$ (बहुदेववाद) और कुप्ऱ$ और नास्तिकता की अनिवार्य विशेषता यह है कि मनुष्य सृष्टि के जीव या निर्जीव आदि के आगे झुके, उनको हानि-लाभ का मालिक समझे, उनसे डरे और उन्हीं से आस बांधे।
3. यह ‘कलमा’ मनुष्य में स्वाभिमान के साथ विनम्रता भी पैदा करता है। इसका मानने वाला कभी अहंकारी और अभिमानी नहीं हो सकता। अपनी शक्ति और धन और योग्यता का घमंड उसके मन में समा ही नहीं सकता, क्योंकि वह जानता है कि उसके पास जो कुछ है ईश्वर ही का दिया हुआ है और ईश्वर को, जिस तरह देने का सामर्थ्य प्राप्त है उसी तरह वह छीन भी सकता है। इसके विपरीत नास्तिकता के साथ जब मनुष्य को किसी प्रकार की सांसारिक कुशलता प्राप्त होती है तो वह अहंकारी हो जाता है, क्योंकि वह अपनी कुशलता को केवल अपनी योग्यता का फल समझता है। इसी तरह ‘शिर्क’ (अनेकेश्वरवाद) और ‘कुफ़्र’ (अधर्म) के साथ भी गर्व का पैदा होना लाज़िमी है, क्योंकि मुशरिक (बहुदेववादी) और व्यक्ति अपने मन में यह समझता है कि ईश्वरों और देवताओं से उसका कोई विशेष सम्बन्ध है जो दूसरों को प्राप्त नहीं।
4. इस ‘कलमे’ पर विश्वास रखने वाला अच्छी तरह समझता है कि मन की शुद्धता और सदाचार के सिवा उसके लिए मुक्ति और कल्याण का कोई साधन नहीं, क्योंकि वह एक ऐसे ईश्वर पर विश्वास रखता है जो अपेक्षारहित, निस्पृह और परम-स्वतंत्र है, किसी से उसका कोई नाता नहीं, बेलाग न्याय करनेवाला है और किसी को उसके ईश्वरत्व में अधिकार या प्रभाव प्राप्त नहीं। इसके विपरीत मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) और काफ़िर लोग सदा झूठी आशाओं के सहारे जीवन व्यतीत करते हैं। उनमें कोई समझता है कि ईश्वर का पुत्र हमारे लिए प्रायश्चित बन गया है। कोई ख़याल करता है कि हम ईश्वर के प्रिय हैं और हमें दंड मिल ही नहीं सकता, कोई यह समझता है कि हम अपने पूर्वजों से ईश्वर के यहाँ सिफ़ारिश करा लेंगे। कोई अपने देवताओं को भेंट-उपहार और पुजापा देकर समझ लेता है कि अब उसे संसार में सब कुछ करने का लाइसेंस (Licence) मिल गया है। इस प्रकार की झूठी धारणाएँ इन लोगों को सदा गुनाहों, पापों ओर दुष्कर्मों के जाल में पँ$साए रखती हैं और वह इनके भरोसे पर आत्मा की शुद्धता और सत्कर्म के प्रति सचेत नहीं रह पाते। रहे नास्तिक, तो उनका सिरे से यह विश्वास ही नहीं कि कोई सर्वोच्च सत्ता उनसे भले या बुरे कर्मों के विषय में पूछ-ताछ करने वाली भी है, अतएव वे संसार में अपने आपको आज़ाद समझते हैं, उनकी अपनी तुच्छ इच्छा उनका ईश होती है और वे उसी के दास होते हैं।
5. इस ‘कलमे’ को मानने वाला किसी हालत में निराश नहीं होता और न उसका दिल टूटता है। वह एक ऐसे ईश्वर पर ईमान रखता है जो धरती और आकाश के समस्त ख़ज़ानों का मालिक है। जिसकी कृपा और अनुग्रह असीम और अपरिमित है और जिसकी शक्तियाँ अनन्त हैं। यह ईमान उसको असाधारण शान्ति प्रदान करता है, उसे परितोष से सम्पन्न कर देता है और सदैव आशायुक्त रखता है। चाहे वह संसार के समस्त द्वारों से ठुकरा दिया जाए, समस्त साधनों का सम्बन्ध छिन्न-भिन्न हो जाए और समस्त उपाय और उपकरण एक-एक करके उसका साथ छोड़ दें, फिर भी एक ईश्वर का सहारा किसी दशा में भी उसका साथ नहीं छोड़ता और उसी के बल-बूते पर वह नई आशाओं के साथ कोशिश-पर-कोशिश किए चला जाता है। यह आत्म-संतोष और दिल का जमाव ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) की धारणा के अतिरिक्त और किसी धारणा से प्राप्त नहीं हो सकता। ‘मुशरिक’ (अनेकेश्वरवादी) और ‘काफ़िर’ (अविश्वासी) और नास्तिक छोटे दिल के होते हैं, उनका भरोसा सीमित शक्तियों पर होता है, इसलिए कठिनाइयों में शीघ्र ही उन्हें निराशा घेर लेती है और बहुत से तो ऐसी दशा में आत्महत्या तक कर डालते हैं।
6. इस ‘कलमे’ पर विश्वास मनुष्य में संकल्प, साहस और धैर्य और अल्लाह पर भरोसे की प्रबल शक्ति पैदा कर देता है। वह जब ईश्वर की प्रसन्नता के लिए दुनिया में बड़े कार्य सम्पन्न करने के लिए उठता है, तो उसके मन में यह विश्वास होता है कि मेरे पीछे धरती और आकाश के सम्राट की शक्ति है। यह भावना उसमें पर्वत की-सी मज़बूती पैदा कर देती है और संसार की सारी कठिनाइयाँ और कष्ट और विरोधी शक्तियाँ मिलकर भी उनको अपने संकल्प से डगमगा नहीं सकतीं। ‘शिर्क’ (बहुदेववाद) और कुफ़्र और नास्तिकता में यह शक्ति कहाँ?
7. यह ‘कलमा’ मनुष्य को वीर बना देता है। देखिए मनुष्य को कायर बनानेवाली वास्तव में दो चीज़ें होती हैं। एक तो प्राण, धन और बाल-बच्चों का मोह, दूसरे यह धारणा कि ईश्वर के सिवा कोई और मारनेवाला है, और यह कि इन्सान अपने उपायों से मृत्यु को टाल सकता है। ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का विश्वास इन दोनों चीज़ों को दिल से निकाल देता है। पहली चीज़ तो इसलिए निकल जाती है कि इसका मानने वाला अपने प्राण और धन और हर चीज़ का स्वामी ईश्वर ही को समझता है और उसकी प्रसन्नता के लिए सब कुछ निछावर करने के लिए तैयार हो जाता है। रही दूसरी चीज़, तो वह इसलिए बाक़ी नहीं रहती कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ कहनेवाले के विचार में प्राण लेने की शक्ति किसी मनुष्य या जानवर या तोप या तलवार या लकड़ी या पत्थर में नहीं है। इसका अधिकार केवल ईश्वर को है और उसने मृत्यु का जो समय निश्चित कर दिया है उससे पहले संसार की समस्त शक्तियाँ मिलकर भी चाहें, तो किसी के प्राण नहीं ले सकतीं। यही कारण है कि अल्लाह पर ईमान रखनेवाले से अधिक वीर संसार में कोई नहीं होता। उसके मुक़ाबले में असत्य की तमाम शक्तियाँ विफल हो जाती हैं। जब वह सत्यमार्ग में असत्य के विरुद्ध संघर्ष के लिए बढ़ता है, तो अपने से दस गुनी शक्ति का भी मुँह पे$र देता है। ‘मुशरिक’ (बहुदेववादी) और ‘काफ़िर’ (अविश्वासी) और नास्तिक यह ताक़त कहाँ से लाएँगे? उनको तो प्राण सबसे अधिक प्रिय होते हैं और वे यह समझते हैं कि मृत्यु दुश्मनों के लाने से आती है और उनके भगाने से भाग सकती है।
8. ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ का विश्वास मनुष्य में संतोष और निःस्पृहता का गुण पैदा कर देता है। लोभ एवं लोलुपता और ईष्र्या एवं डाह की तुच्छ भावनाओं को उसके दिल से निकाल देता है। सफलता प्राप्त करने के अवैध और नीच उपायों को अपनाने का ख़याल तक उसके मन में नहीं आने देता। वह समझता है कि रोज़ी अल्लाह के हाथ में है जिसको चाहे अधिक दे, जिसको चाहे कम दे। इज़्ज़त और शक्ति और यश और राज्य सब कुछ ईश्वर के अधिकार में है। वह गुप्त भलाई के मुताबिक़ जिसको जितना चाहता है देता है। हमारा काम केवल अपनी हद तक उचित प्रयत्न करना है। सफलता और असफलता ईश्वर की कृपा पर निर्भर है। वह यदि देना चाहे, तो संसार की कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती और न देना चाहे, तो कोई शक्ति दिला नहीं सकती। इसके विपरीत ‘मुशरिक’ और ‘काफ़िर’ और ‘नास्तिक’ अपनी सफलता और असफलता को अपने प्रयत्न और सांसारिक शक्तियों की सहायता या विरोध पर टिका हुआ समझते हैं इसलिए उनपर लोभ और लोलुपता पूर्ण अधिकार जमाए हुए होती है। सफलता प्राप्त करने के लिए रिश्वत, चापलूसी, साज़िश और हर प्रकार के नीचतम साधनों को अपनाने में उन्हें हिचक नहीं होती। दूसरों की सफलता पर ईष्र्या और डाह में जले मरते हैं और उनको नीचा दिखाने के किसी बुरे-से-बुरे उपाय को भी नहीं छोड़ते।
9. सबसे बड़ी चीज़ यह है कि ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ पर विश्वास मनुष्य को ईश्वर के क़ानून का पाबन्द बनाता है। इस कलमे पर ईमान लानेवाला यक़ीन रखता है कि ईश्वर हर छिपी और खुली चीज़ की ख़बर रखता है। वह हमारी शाह-रग से भी अधिक समीप है। यदि हम रात के अंधकार में और एकांत कमरे में भी कोई पाप करें, तो ईश्वर को उसकी ख़बर हो जाती है। यदि हमारे दिल की गहराई में भी कोई बुरा इरादा पैदा हो तो ईश्वर तक उसकी सूचना पहुँच जाती है। हम सबसे छिपा सकते हैं, परन्तु ईश्वर से नहीं छिपा सकते, सबसे भाग सकते हैं परन्तु ईश्वर के राज्य से नहीं निकल सकते। सबसे बच सकते हैं, परन्तु ईश्वर की पकड़ से बचना नामुमकिन है। यह विश्वास जितना मज़बूत होगा उतना ही अधिक मनुष्य अपने ईश्वर के आदेशों का पालन करेगा। जिस चीज़ को ईश्वर ने हराम (अवैध) किया है वह उसके पास भी न फटकेगा और जिस चीज़ का उसने आदेश दिया वह उसको एकान्त और अंधकार में भी मानेगा, क्योंकि उसके साथ एक ऐसी पुलिस लगी हुई है जो किसी हालत में उसका पीछा नहीं छोड़ती और उसको ऐसी अदालत (Court) का खटका लगा हुआ है, जिसके वारंट (Warrant) से वह कहीं भाग ही नहीं सकता। यही कारण है कि मुस्लिम होने के लिए सबसे पहली और ज़रूरी शर्त ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ पर ईमान लाना है। जैसा कि आपको शुरू में बताया जा चुका है, मुस्लिम का अर्थ है ईश्वर का आज्ञाकारी बन्दा (सेवक), और ईश्वर का आज्ञाकारी होना संभव ही नहीं जब तक कि मनुष्य इस बात पर विश्वास न करे कि अल्लाह के सिवा कोई ‘इलाह’ (पूज्य) नहीं है।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षा में यह अल्लाह पर ईमान सबसे महत्वपूर्ण और मौलिक चीज़ है। यह इस्लाम का केन्द्र है, उसका मूल है, उसकी शक्ति का उद्गम है। इसके अतिरिक्त इस्लाम की जितनी धारणाएँ और आदेश और क़ानून हैं सब इसी आधार पर स्थित हैं और उन सबको इसी केन्द्र से शक्ति पहुँचती है। इसको हटा देने के बाद इस्लाम कोई चीज़ नहीं रहता।


(3) ईश्वर के फ़रिश्तों पर ईमानअल्लाह पर ईमान के बाद दूसरी चीज़ जिसपर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने ‘ईमान’ लाने का आदेश दिया है वह फ़रिश्तों का वुजूद है, और बड़ा लाभ इस शिक्षा का यह है कि इससे ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) की धारणा को शिर्क (Polytheism) के समस्त ख़तरों से नजात मिल जाती है।
ऊपर बताया जा चुका है कि मुशरिकों (बहुदेववादियों) ने ईश्वरत्व में सृष्टि की दो प्रकार की चीज़ों को शामिल किया है: एक प्रकार तो उनका है जिनका भौतिक (Material) अस्तित्व है और जो दीख पड़ती हैं, जैसे सूर्य, चन्द्रमा और तारे, आग और पानी और मनुष्यों में महान लोग इत्यादि। दूसरा प्रकार उनका है जिनका अस्तित्व भौतिक नहीं है बल्कि वे निगाहों से ओझल हैं और परोक्ष रूप से विश्व का प्रबन्ध-कार्य कर रही हैं, जैसे कोई हवा चलानेवाली और कोई पानी बरसानेवाली और कोई प्रकाश करनेवाली। इनमें से पहले प्रकार की चीज़ें तो मनुष्य की आँखों के सामने मौजूद हैं। इसलिए उनके ईश्वर होने की मनाही स्वयं ‘ला इला-ह इल्लल्लाह’ के शब्दों ही से हो जाती है, परन्तु दूसरे प्रकार की चीज़ें अप्रत्यक्ष और रहस्यमय हैं। मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) अधिकतर उन्हीं पर जमे हुए हैं। उन्हीं को देवता और ईश, या ईश्वर की सन्तान समझते हैं, उन्हीं की काल्पनिक मूर्तियाँ बनाकर भेंट और पुजापा चढ़ाते हैं, अतएव एकेश्वरवाद को शिर्क (अनेकेश्वरवाद) की इस दूसरी शाखा से बचाने के लिए इस्लाम ने एक स्थायी धारणा का वर्णन किया है।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने हमें बताया है कि ये छिपी हुई सूक्ष्म सत्ताएँ (Spiritual Beings), जिनको देवता और ईश और ईश्वर की सन्तान कहते हो वास्तव में ये ईश्वर के ‘फ़रिश्ते’ (Angels) हैं। इनका ईश्वरत्व में कोई अधिकार और भाग नहीं है। ये सब ईश्वर के आज्ञाकारी हैं और इतने आज्ञापालक हैं कि ईश्वरीय आदेश का तनिक भी उल्लंघन नहीं कर सकते। ईश्वर इनके द्वारा अपने राज्य का प्रबन्ध करता है और ये ठीक-ठीक उसके आदेश का पालन करते हैं। इनको स्वयं अपने अधिकार से कुछ करने की शक्ति प्राप्त नहीं। ये अपनी शक्ति से ईश्वर की सेवा में कोई प्रस्ताव पेश नहीं कर सकते। इनमें यह साहस और ताक़त नहीं कि उसके सामने किसी की सिफ़ारिश करें, इनकी पूजा करना और इनसे सहायता की याचना करना तो मनुष्य के लिए अपमान है, क्योंकि मनुष्य की सृष्टि के प्रारंभिक दिन ईश्वर ने इनसे आदम के सामने नत-मस्तक कराया था और आदम को इनसे बढ़कर ज्ञान प्रदान किया था और इनको छोड़कर आदम को धरती पर ख़िलाफ़त (प्रतिनिधित्व) प्रदान किया था। तो जिस मनुष्य के सामने इन फ़रिश्तों ने सिर झुकाया हो उसके लिए इससे बढ़कर क्या अपमान हो सकता है कि वह उलटा उनके आगे झुके, माथा टेके और उनसे सहायता माँगे।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने एक ओर तो हमको फ़रिश्तों को पूजने और ईश्वरत्व में उन्हें शरीक करने से रोक दिया, दूसरी ओर आप (सल्ल॰) ने हमें यह भी बताया कि फ़रिश्ते ईश्वर के श्रेष्ठ बन्दे हैं, उसके पैदा किए हुए हैं, पापों से रहित हैं। उनकी प्रवृ$ति ही ऐसी है कि वे ईश्वरीय आदेशों का उल्लंघन नहीं कर सकते। वे सदैव ईश्वर की बन्दगी और इबादत में लगे रहते हैं। उन्हीं में से एक चुने हुए फ़रिश्ते के द्वारा ईश्वर अपने पैग़म्बरों पर वह्य (ईश्वरीय वाणी) भेजता है। उस फ़रिष्ष्श्ते का नाम जिबरील (अलैहि॰) है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के पास जिबरील (अलैहि॰) ही के द्वारा क़ुरआन की आयतें अवतरित हुई थीं। इन्हीं फ़रिश्तों में से वे फ़रिश्ते भी हैं जो हर समय आपके साथ लगे हुए हैं। आपके हर अच्छे और बुरे काम को हर समय देखते रहते हैं। आपकी हर बुरी और अच्छी बात को हर समय सुनते हैं और नोट करते रहते हैं, उनके पास हर व्यक्ति के जीवन का रिकार्ड (अभिलेख) सुरक्षित रहता है। मरने के पश्चात् जब आप ईश्वर के सामने हाज़िर होंगे, तो यह आपका कर्म-लेख प्रस्तुत कर देंगे और आप देखेंगे कि जीवन भर आपने खुले-छिपे जो कुछ भी नेकियाँ और बुराइयाँ की थीं वे सब उसमें मौजूद हैं।
‘फ़रिश्तों’ के अस्तित्व का विवरण हमको नहीं बताया गया, केवल उनके गुण बताए गए हैं और उनके अस्तित्व पर विश्वास करने का हुक्म दिया गया है। हमारे पास यह मालूम करने का कोई साधन नहीं कि वे कैसे हैं और कैसे नहीं। अतएव अपनी बुद्धि से उनके व्यक्तित्व के विषय में कोई बात गढ़ लेना अनुचित है। और उनके अस्तित्व को न मानना ‘कुप्ऱ$’ (अधर्म) है, क्योंकि न मानने और उनका इन्कार करने के लिए किसी के पास कोई सुबूत नहीं और इन्कार का अर्थ ईश्वर के रसूल (पैग़म्बर) को झूठा ठहराना है (ईश्वर इससे हमें बचाए)। हम उनके अस्तित्व को इसलिए मानते हैं कि ईश्वर के सच्चे रसूल (पैग़म्बर) ने हमको उनका अस्तित्व होने की सूचना दी है।
(4)  अल्लाह की किताबों पर ईमानतीसरी चीज़ जिस पर ‘ईमान’ लाने की शिक्षा हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के द्वारा हमको दी गई है, वे ईश्वर की किताबें हैं जो उसने अपने ‘नबियों’ (पैग़म्बरों) पर उतारीं।
ईश्वर ने जिस तरह हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर क़ुरआन उतारा है, उसी तरह आपसे पहले जो रसूल (पैग़म्बर) हुए हैं, उनके पास भी अपनी किताबें भेजी थीं। उनमें से कुछ किताबों के नाम हमको बता दिए गए हैं, जैसे इबराहीम के सहीपे़$ जो हज़रत इब्राहीम (अलैहि॰) पर अवतरित हुए, तौरात (Torah) जो हज़रत मूसा (अलैहि॰) पर उतरी। ज़बूर (Psalms) जो हज़रत दाऊद (अलैहि॰) के पास भेजी गई और इंजील (Gospel) जो हज़रत ईसा (अलैहि॰) को दी गई। इनके अतिरिक्त दूसरी किताबें जो दूसरे रसूलों (पैग़म्बरों) के पास आई थीं उनके नाम हमें नहीं बताए गए। इसलिए किसी और धार्मिक ग्रंथ के बारे में हम निश्चित रूप से न यह कह सकते हैं कि वह ईश्वर की ओर से है और न यह कह सकते हैं कि वह ईश्वर की ओर से नहीं है। हाँ, हम ‘ईमान’ लाते हैं कि जो ग्रंथ भी ईश्वर की ओर से अवतरित हुए थे वे सब सत्य थे।
जिन किताबों के नाम हमको बताए गए हैं, उनमें इब्राहीम के ‘सहीफ़े’ तो अब संसार में पाए नहीं जाते। रहीं तौरात, ज़बूर और इंजील, तो वे यहूदियों और ईसाइयों के पास मौजूद तो अवश्य हैं, परन्तु क़ुरआन में हमें बताया गया है कि इन सब किताबों में लोगों ने ईश्वर के ‘कलाम’ को बदल डाला है और अपनी ओर से बहुत-सी बातें उनमें मिला दी हैं। स्वयं ईसाई और यहूदी भी मानते हैं कि मूल ग्रंथ उनके पास नहीं हैं केवल उनके अनुवाद बचे रह गए हैं जिनमें शताब्दियों से फेरबदल (Alteration) होता रहा है और अब तक होता चला आ रहा है। फिर इन ग्रंथों के पढ़ने से भी स्पष्ट मालूम होता है कि इनमें बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो ईश्वर की ओर से नहीं हो सकतीं। इसलिए जो ग्रंथ पाए जाते हैं वे ठीक-ठीक ईश्वरीय ग्रंथ नहीं हैं, उनमें अल्लाह का कलाम और मनुष्य का कलाम मिल-जुल गए हैं। और यह मालूम करने का कोई साधन नहीं कि अल्लाह का कलाम कौन-सा है और मनुष्यों का कलाम कौन-सा है। अतएव पिछले ग्रंथों पर ईमान लाने का जो आदेश हमें दिया गया है वह केवल इस हैसियत से है कि ईश्वर ने क़ुरआन से पहले भी संसार की प्रत्येक जाति के पास अपने आदेश अपने नबियों (पैग़म्बरों) के द्वारा भेजे थे। और वे सब उसी ईश्वर के आदेश थे जिसकी ओर से क़ुरआन आया है। क़ुरआन कोई नया और अनोखा ग्रंथ नहीं है बल्कि उसी शिक्षा को जीवित करने के लिए भेजा गया है जिसको पहले युग के लोगों ने पाया और खो दिया, या बदल डाला या उसमें मनुष्य के ‘कलाम’ (वाणी) को मिला-जुला दिया।
क़ुरआन ईश्वर का सबसे अन्तिम ग्रंथ है। इसमें और पिछले ग्रंथों में कई हैसियतों से अन्तर है :
पहले जो ग्रंथ आए थे उनमें से अधिकतर की मूल प्रतियाँ संसार से ग़ायब हो गईं और उनके केवल अनुवाद रह गए, परन्तु क़ुरआन जिन शब्दों में अवतरित हुआ था ठीक-ठीक उन्हीं शब्दों में मौजूद है। उसके एक अक्षर बल्कि एक मात्र में भी परिवर्तन नहीं हुआ।
पिछले ग्रंथों में लोगों ने ईश्वरीय वाणी में अपना कलाम मिला दिया है। एक ही ग्रंथ में ईश्वरीय वाणी भी है, क़ौमों का इतिहास भी है, महापुरुषों की जीवन गाथाएँ भी हैं, टीका और व्याख्या भी है और धर्म—शास्त्रियों के निकाले हुए धार्मिक मसले भी हैं। और ये सब चीज़ें इस तरह गडमड हैं कि ईशवाणी को इनमें से अलग छाँट लेना संभव नहीं है, परन्तु क़ुरआन में विशुद्ध ईश्वरीय वाणी (Words of God) हमें मिलती है और उसमें किसी दूसरे के कलाम की ज़रा भी मिलावट नहीं है। क़ुरआन की टीका हदीस, फ़िक़्ह (स्मृति-शास्त्र), रसूल के जीवन चरित्र, पैग़म्बर के साथियों (सहाबा) के जीवन चरित्रा और इस्लाम के इतिहास पर मुसलमानों ने जो कुछ भी लिखा वह सब क़ुरआन से बिल्कुल अलग दूसरे ग्रंथों में लिखा हुआ है। क़ुरआन में उनका एक शब्द भी मिलने नहीं पाया है।
जितने धार्मिक ग्रंथ संसार की विभिन्न जातियों के पास हैं, उनमें से एक के बारे में भी एतिहासिक प्रमाण से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि उसका सम्बन्ध जिस नबी (पैग़म्बर) से जोड़ा जाता है वास्तव में उसी का है, बल्कि कुछ धार्मिक ग्रंथ ऐसे भी हैं जिनके बारे में सिरे से यह भी नहीं मालूम कि वे किस ज़माने में किस नबी पर अवतरित हुए थे, परन्तु क़ुरआन के बारे में इतने अटल ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं कि कोई व्यक्ति हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के साथ उसका सम्बन्ध होने में सन्देह, कर ही नहीं सकता। उसकी ‘आयतों’ तक के विषय में यह मालूम है कि कौन-सी आयत कब और कहाँ उतरी है।
पिछले ग्रंथ जिन भाषाओं में उतरे थे वे एक ज़माने से मुर्दा हो चुकी हैं। अब संसार में कहीं भी उनके बोलनेवाले बाक़ी नहीं रहे, और उनके समझनेवाले भी बहुत कम पाए जाते हैं, ऐसे ग्रंथ यदि मूल और वास्तविक रूप से पाए भी जाएँ तो उनके आदेशों को ठीक-ठीक समझना और उनका पालन करना संभव नहीं, परन्तु क़ुरआन जिस भाषा में है वह एक जीवित भाषा है, संसार में करोड़ों व्यक्ति आज भी उसे बोलते, और करोड़ों व्यक्ति उसे जानते और समझते हैं। उसकी शिक्षा का सिलसिला संसार में हर जगह चल रहा है। हर व्यक्ति उसको सीख सकता है और जिसे उसके सीखने का मौक़ा प्राप्त नहीं उसको हर जगह ऐसे व्यक्ति मिल सकते हैं जो क़ुरआन का अर्थ उसे समझाने की योग्यता रखते हों।
3. जितने धार्मिक ग्रंथ संसार की विभिन्न जातियों के पास हैं उनमें से प्रत्येक ग्रंथ में किसी विशेष जाति को संबोधित किया गया है, और प्रत्येक ग्रंथ में ऐसे आदेश पाए जाते हैं जो मालूम होता है कि एक विशेष युग की परिस्थितियों और आवश्यकताओं के लिए थे, परन्तु अब न उसकी आवश्यकता है, और न उन्हें व्यवहार में लाया जा सकता है। इससे यह बात अपने आप ज़ाहिर हो जाती है कि ये सब ग्रंथ अलग-अलग क़ौमों के लिए ही विशेष थे। इनमें से कोई ग्रंथ भी सारे संसार के लिए नहीं आया था। फिर जिन क़ौमों के लिए ये ग्रंथ आए थे उनके लिए भी ये सदैव के लिए न थे, बल्कि किसी विशेष युग के लिए थे। अब क़ुरआन को देखिए। इस ग्रंथ में हर जगह मनुष्य को संबोधित किया गया है। फिर इस ग्रंथ में जितने आदेश दिए गए हैं वे सब ऐसे हैं जिनका हर युग में और हर जगह पालन किया जा सकता है। यह बात साबित करती है कि क़ुरआन सम्पूर्ण संसार के लिए और सदा के लिए है।
4. पिछले ग्रंथों में से प्रत्येक में भलाई और सच्चाई की बातें बयान की गई थीं। नैतिकता और सत्यवादिता के नियम सिखाए गए थे, ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने के तरीके़ बताए गए थे, परन्तु कोई एक किताब भी ऐसी न थी जिसमें समस्त विशेषताओं को एक जगह एकत्र कर दिया गया हो और कोई चीज छोड़ी न गई हो। यह बात केवल क़ुरआन में है कि जितनी विशेषताएँ पिछले ग्रंथों में अलग-अलग थीं वे सब इसमें एकत्र कर दी गई हैं और जो विशेषताएँ पिछले ग्रंथों में नहीं थीं वे भी इस किताब में आ गई हैं।
5. समस्त धार्मिक ग्रंथों में मनुष्य के हस्तक्षेप से ऐसी बातें मिल गई हैं जो वास्तविकता के विरुद्ध हैं, बुद्धि के विरुद्ध हैं, अत्याचार और अन्याय पर आधारित हैं, मनुष्य की धारणा और कर्म दोनों को बिगाड़ती हैं यहाँ तक कि  बहुत से ग्रंथों में अश्लील, अनैतिक बातें भी पायी जाती हैं। क़ुरआन इन सब चीज़ों से बचा हुआ है। इसमें कोई बात भी ऐसी नहीं जो बुद्धि के विपरीत हो, या जिसको प्रमाण या तजुर्बे से ग़लत साबित किया जा सकता हो। इसके किसी आदेश में अन्याय नहीं है, इसकी कोई बात मनुष्य को गुमराह करनेवाली नहीं है। इसमें अश्लीलता और अनैतिकता का नामोनिशान तक नहीं है। आरंभ से अंत तक पूरा क़ुरआन उच्चकोटि की तत्वदर्शिता व बुद्धिमत्ता (Wisdom) और न्याय व इन्साफ़ की शिक्षा और सन्मार्ग-दर्शन, उत्तम आदेश और नियमों से परिपूर्ण है।
यही विशेषताएँ हैं जिनके कारण पूरी दुनिया की क़ौमों को आदेश दिया गया है कि क़ुरआन पर ‘ईमान’ लाएँ और समस्त ग्रंथों को छोड़कर केवल इसी एक ग्रंथ का आज्ञापालन करें क्योंकि मनुष्य को ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन बिताने के लिए जितने आदेशों की आवश्यकता है वे सब इसमें बिना कमी-बेशी के बयान कर दी गई हैं, यह ग्रंथ आ जाने के बाद किसी दूसरे ग्रंथ की आवश्यकता ही नहीं रही।
जब आपको मालूम हो गया कि क़ुरआन और दूसरे ग्रंथों में क्या अन्तर है, तो यह बात आप ख़ुद समझ सकते हैं कि दूसरे ग्रंथों पर ईमान और क़ुरआन पर ईमान में क्या अन्तर होना चाहिए, पिछले ग्रंथों पर ‘ईमान’ केवल तसदीक़ की हद तक है अर्थात् वे सब ईश्वर की ओर से थे और सच्चे थे और उसी उद्देश्य से आए थे जिसको पूरा करने के लिए क़ुरआन आया है और क़ुरआन पर ‘ईमान’ इस हैसियत से है कि यह विशुद्ध ईश्वरीय वाणी (अल्लाह का कलाम) है, सर्वथा सत्य है, इसका प्रत्येक शब्द सुरक्षित है, इसकी हर बात सत्य है, इसके हर आदेश का अनुपालन अनिवार्य है और हर वह बात रद्द कर देने योग्य है जो क़ुरआन के विरुद्ध हो।
(5)  ईश्वर के रसूलों (ईशदूतों) पर ईमान
ग्रंथों के पश्चात् हमको ईश्वर के समस्त रसूलों (पैग़म्बरों) पर भी ‘ईमान’ लाने का आदेश दिया गया है।
यह बात इससे पहले लिखी जा चुकी है कि ईश्वर के रसूल संसार की सभी जातियों के पास आए थे और उन सबने उसी इस्लाम की शिक्षा दी थी जिसकी शिक्षा देने के लिए अन्त में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) आए। इस दृष्टि से ईश्वर के सब रसूल एक ही गिरोह के लोग थे। यदि कोई व्यक्ति उनमें से किसी एक को भी झूठा ठहराए तो मानो उसने सबको झुठला दिया और किसी एक की भी पुष्टि करे तो आप-से-आप उसके लिए आवश्यक हो जाता है कि सबकी पुष्टि करे। मान लीजिए दस व्यक्ति एक ही बात कहते हैं, जब आपने एक को सच्चा मान लिया तो ख़ुद-ब-ख़ुद आपने शेष नौ को भी सच्चा मान लिया। यदि आप एक को झूठा कहेंगे तो इसका अर्थ है कि आपने उस बात को ही झूठ माना है जिसे वह बयान कर रहा है और इससे दसों का झूठा सिद्ध होना साबित होगा। यही कारण है कि इस्लाम में सभी रसूलों पर ‘ईमान’ लाना आवश्यक है, जो व्यक्ति किसी रसूल (पैग़म्बर) पर ‘ईमान’ न लाएगा वह ‘काफ़िर’ (अविश्वासी) होगा भले ही वह अन्य सभी ‘रसूलों’ को मानता हो।
कुछ उल्लेखों के अनुसार संसार की विभिन्न जातियों में जो नबी (पैग़म्बर) भेजे गए हैं उनकी संख्या लगभग एक लाख चैबीस हज़ार है। यदि आप विचार करें कि दुनिया कब से आबाद है और उसमें कितनी जातियाँ गुज़र चुकी हैं तो यह संख्या कुछ भी ज़्यादा मालूम न होगी। इन सवा लाख नबियों (पैग़म्बरों) में से जिनके नाम हमको क़ुरआन में बताए गए हैं उनपर तो निश्चयपूर्वक ईमान लाना आवश्यक है, बाक़ी सभी के बारे में हमें केवल यह विश्वास रखने की शिक्षा दी गई है कि जो लोग भी ईश्वर की ओर से उसके बन्दों के मार्गदर्शन के लिए भेजे गए थे वे सब सच्चे थे। भारत, चीन, ईरान, मिस्र, अफ़्रीक़ा, यूरोप और संसार के दूसरे देशों में जो सन्देष्टा (पैग़म्बर) आए होंगे हम उन सब पर ईमान लाते हैं, परन्तु हम किसी विशेष व्यक्ति के बारे में यह नहीं कह सकते कि वह नबी था और न यह कह सकते हैं कि वह नबी न था, इसलिए कि हमें उसके बारे में कुछ बताया नहीं गया, हाँ, विभिन्न धर्मों के अनुयायी जिन लोगों को अपना पेशवा मानते हैं उनके विरुद्ध कुछ कहना हमारे लिए जायज़ नहीं, बहुत संभव है कि वास्तव में वे नबी (पैग़म्बर) हों और बाद में उनके अनुयायियों ने उनके धर्म को बिगाड़ दिया हो जिस तरह हज़रत मूसा (अलैहि॰) और हज़रत ईसा (अलैहि॰) के अनुयायियों ने बिगाड़ा। अतएव हम जो कुछ भी सम्मति प्रकट करेंगे उनके मतों और प्रथाओं के बारे में प्रकट करेंगे, परन्तु पेशवाओं के बारे में चुप रहेंगे ताकि अनजाने में हमसे किसी रसूल (पैग़म्बर) के साथ गुस्ताख़ी न हो जाए।
पिछले रसूलों में औैर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) में इस दृष्टि से तो कोई अन्तर नहीं कि आपकी तरह वे सब भी सच्चे थे, ईश्वर के भेजे हुए थे, इस्लाम का सीधा मार्ग बतानेवाले थे और हमें सब पर ईमान लाने का हुक्म दिया गया है, परन्तु इन सब पहलुओं से समानता होने पर भी आप में और दूसरे पैग़म्बरों में तीन बातों का अन्तर भी है:
एक यह कि पिछले सन्देष्टा विशेष जातियों में विशेष समयों के लिए आए थे और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) सम्पूर्ण संसार के लिए और सदा के लिए नबी बनाकर भेजे गए हैं, जैसा कि पिछली पंक्तियों में विस्तार से बयान कर चुके हैं।
दूसरी बात यह कि पिछले ईश-सन्देष्टाओं (पैग़म्बरों) की शिक्षाएँ या तो संसार से बिल्कुल ग़ायब हो चुकी हैं या कुछ शेष भी रह गई हैं, तो अपने विशुद्ध रूप से सुरक्षित नहीं रही हैं। इसी प्रकार उनके ठीक-ठीक जीवन वृत्तांत भी आज संसार में कहीं नहीं मिलते, बल्कि उनपर बहुत-सी काल्पनिक कहानियों के रद्दे चढ़ गए हैं। इसलिए यदि कोई उनका अनुवर्तन करना चाहे भी, तो नहीं कर सकता। इसके विपरीत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षा, आपका पवित्रा जीवन-चरित्र आप (सल्ल॰) के मौखिक आदेश, आपके व्यावहारिक तरीके़, आपका शील, स्वभाव, प्रवृ$ति, तात्पर्य यह कि हर चीज़ संसार में बिल्कुल सुरक्षित है। इसलिए वास्तव में समस्त पैग़म्बरों में केवल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ही एक ऐसे पैग़म्बर हैं कि केवल आप (सल्ल॰) ही का अनुसरण करना संभव है।
तीसरा यह कि पिछले सन्देष्टाओं के द्वारा इस्लाम की जो शिक्षा दी गई थी वह पूर्ण नहीं थी। हर नबी के बाद दूसरा नबी आकर उसके उपदेश और क़ानून और शिक्षाओं में ईशादशानुसार परिवर्तन एवं वृद्धि करता रहा और परिवर्तन व प्रगति का क्रम निरन्तर चलता रहा। यही कारण है कि उन सन्देष्टाओं (पैग़म्बरों) की शिक्षाओं को उनका समय बीत जाने के पश्चात् ईश्वर ने सुरक्षित नहीं रखा, क्योंकि किसी पूर्ण शिक्षा के पश्चात् पिछली अपूर्ण शिक्षा की आवश्यकता ही नहीं रहती। अन्त में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के द्वारा इस्लाम की ऐसी शिक्षा दी गई जो हर हैसियत से पूर्ण थी। इसके पश्चात् समस्त सन्देष्टाओं के धर्म-विधान या शरीअतें (Code) आप-से-आप निरस्त (मन्सूख़) हो गईं, क्योंकि पूर्ण को छोड़कर अपूर्ण का अनुपालन करना बुद्धि के ख़िलाफ़ है। जो व्यक्ति हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का अनुपालन करेगा उसने मानो समस्त नबियों का अनुपालन किया, क्योंकि समस्त नबियों की शिक्षाओं में जो कुछ भलाई थी वह सब हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षाओं में मौजूद है। और जो व्यक्ति आपका आज्ञापालन छोड़कर किसी पिछले नबी का आज्ञापालन करेगा वह बहुत-सी भलाइयों से वंचित रह जाएगा, इसलिए कि जो भलाइयाँ (कल्याणकारी बातें) बाद में आई हैं वे उस पुरानी शिक्षा में न थीं।
इन कारणों से सम्पूर्ण संसार के मनुष्यों के लिए अनिवार्य हो गया है कि वे केवल हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का आज्ञापालन करें। मुसलमान होने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर तीन हैसियतों से ‘ईमान’ लाए।
एक यह कि आप अल्लाह के सच्चे पैग़म्बर हैं।
दूसरे यह कि आपका मार्गदर्शन और शिक्षा बिल्कुल पूर्ण है, उसमें कोई अपूर्णता नहीं और वह हर क़िस्म की भूल से रहित है।
तीसरे यह कि आप ईश्वर के अन्तिम पैग़म्बर हैं। आपके बाद महाप्रलय (क़ियामत) तक ‘नबी’ किसी भी क़ौम में आनेवाला नहीं है, न कोई व्यक्ति ऐसा आनेवाला है जिसपर ईमान लाना मुस्लिम होने के लिए शर्त हो, जिसको न मानने से कोई व्यक्ति काफ़िर हो जाए।
(6)  आख़िरत (परलोक) पर ईमानपाँचवीं चीज़ जिस पर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने हमें ईमान लाने की शिक्षा दी है वह ‘आख़िरत’ है। आख़िरत के बारे में जिन चीज़ों पर ‘ईमान’ लाना आवश्यक है वे ये हैं:
1. एक दिन ईश्वर सम्पूर्ण विश्व और सृष्टि के जीव आदि को मिटा देगा। उस दिन का नाम ‘क़ियामत’ है।
2. फिर वह सब जीवधारियों को दूसरा जीवन देगा और सब ईश्वर के सामने पेश होंगे, इसको ‘हश्र’ (Resurrection) कहते हैं।
3. सब लोगों ने अपने सांसारिक जीवन में जो कुछ किया है उसका पूरा अभिलेख ईश्वर की अदालत में प्रस्तुत किया जाएगा।
4. ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति के अच्छे और बुरे कर्म को तौलेगा। जिसकी भलाई ईश्वर की तुला में बुराई से अधिक भारी होगी उसे क्षमा—दान देगा और जिसकी बुराई का पल्ला भारी रहेगा उसे दंड देगा।
5. जिन लोगों को क्षमा मिल जाएगी, वे ‘जन्नत’ (स्वर्ग) में जाएँगे और जिनको दंड दिया जाएगा वे ‘दोज़ख़’ (नरक) में जाएँगे।
आख़िरत पर ईमान की ज़रूरतआख़िरत की यह धारणा जिस तरह हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने पेश की है उसी तरह पिछले समस्त नबी इसको प्रस्तुत करते आए हैं और हर युग में इसपर ईमान लाना मुस्लिम होने के लिए अनिवार्य शर्त रहा है। समस्त ईश-सन्देष्टाओं ने उस व्यक्ति को ‘काफ़िर’ (अधर्मी) कहा है जो इससे इन्कार करे या इसमें सन्देह करे, क्योंकि इस धारणा के बिना ईश्वर और उसके ग्रंथों और उसके रसूलों को मानना बिल्कुल बेकार हो जाता है और मनुष्य का सारा जीवन विवृ$त हो जाता है। यदि आप विचार करें तो यह बात आसानी से समझ में आ सकती है। आपसे जब भी किसी काम के लिए कहा जाता है तो सबसे पहला प्रश्न जो आपके मन में उत्पन्न होता है वह यही है कि इसके करने से क्या लाभ है? और न करने से हानि क्या है? यह प्रश्न क्यों उठता है? इसका कारण यह है कि मानव प्रकृति प्रत्येक ऐसे कार्य को बेकार समझती है जिसका कोई नतीजा न हो। आप किसी ऐस काम के लिए तैयार न होंगे जिनके बारे में आपको विश्वास हो कि उससे कोई लाभ नहीं। और इसी प्रकार आप किसी ऐसी चीज़ से बचना भी न चाहेंगे जिसके बारे में आपको विश्वास हो कि उससे कोई हानि नहीं। यही बात सन्देह के बारे में भी है। जिस कार्य के लाभ में सन्देह हो उसमें आपका मन कदापि न लगेगा और जिस काम के हानिकारक होने में सन्देह हो उससे बचने की भी आप कोई विशेष कोशिश न करेंगे। बच्चों को देखिए, वे आग में क्यों हाथ डाल देते हैं? इसी लिए तो कि उन्हें इस बात का विश्वास नहीं कि आग जलानेवाली चीज़ है। और वे पढ़ने से क्यों भागते हैं? इसी कारण से तो कि जो कुछ लाभ उनके बड़े उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं वे उनके दिल को नहीं लगते। अब सोचिए कि जो व्यक्ति आख़िरत को नहीं मानता वह ईश्वर को मानने और उसकी इच्छा के अनुसार चलने को निष्फल समझता है, उसकी दृष्टि में न तो ईश्वर के आज्ञापालन से कोई लाभ है और न उसकी अवज्ञा से कोई हानि। फिर कैसे संभव है कि वह उन आदेशों का पालन करे जो ईश्वर ने अपने रसूलों (पैग़म्बरों) और अपने ग्रंथों के द्वारा दिए हैं? मान लीजिए यदि उसने ईश्वर को मान भी लिया तो ऐसा मानना बिल्कुल बेकार होगा, क्योंकि वह अल्लाह के क़ानून का पालन न करेगा और उसकी इच्छा के अनुसार न चलेगा।
यह मामला यहीं तक नहीं रहता, आप और विचार करेंगे तो आपको मालूम होगा कि आख़िरत के मानने या न मानने का मानव-जीवन पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है। जैसा कि हमने ऊपर बयान किया, मनुष्य की प्रवृ$ति ही ऐसी है कि वह प्रत्येक कार्य करने या न करने का निर्णय उसके लाभ या हानि की दृष्टि से करता है। अब एक व्यक्ति तो वह है जिसकी निगाह केवल इसी संसार के लाभ और हानि पर है। वह किसी ऐसे अच्छे काम के लिए कभी भी तैयार न होगा जिससे कोई लाभ इस संसार में प्राप्त होने की आशा न हो, और किसी ऐसे बुरे काम से न बचेगा जिससे इस लोक में कोई हानि पहुँचने का डर न हो। एक दूसरा व्यक्ति है जिसकी निगाह कर्मों के अन्तिम नतीजे पर है, वह सांसारिक लाभ और हानि को केवल अस्थायी और क्षणिक वस्तु समझेगा और आख़िरत के शाश्वत और स्थायी लाभ या हानि का ध्यान रखते हुए भलाई और नेकी को अपनाएगा और बुराई को छोड़ देगा, भले ही इस संसार में भलाई और नेकी से कितनी ही बड़ी हानि और बुराई से कितना ही बड़ा लाभ होता हो। देखिए, दोनों में कितना बड़ा अन्तर हो गया। एक की नज़र में नेकी वह है जिसका कोई अच्छा परिणाम इस संसार के क्षणिक जीवन में प्राप्त हो जाए, उदाहरणतः कुछ रुपया मिले, कोई भूमि हाथ आ जाए, कोई पद मिल जाए, कुछ यश और शोहरत प्राप्त हो, कुछ लोग वाह-वाह करें या कुछ आनन्द और प्रसन्नता प्राप्त हो जाए, कुछ इच्छाएँ पूरी हों, कुछ मन को आनन्द प्राप्त हो जाए। और बुराई वह है जिससे कोई बुरा परिणाम इस जीवन में सामने आए या सामने आने की आशंका हो, उदाहरणतः प्राण और धन की हानि, अस्वस्थता, अपयश, राज्य की ओर से दंड, किसी प्रकार का दुःख और शोक, या खिन्नता। इसके विपरीत दूसरे व्यक्ति की नज़र में भलाई और नेकी वह है जिससे ईश्वर प्रसन्न हो, और बुराई वह है जिससे ईश्वर अप्रसन्न हो। भलाई यदि संसार में उसको किसी प्रकार का लाभ न पहुँचाए बल्कि उल्टा हानि ही हानि पहुँचाए तब भी वह उसे भलाई और नेकी ही समझता है और विश्वास रखता है कि अंत में, ईश्वर उसको कभी न ख़त्म होनेवाला लाभ पहुँचाएगा। और बुराई से भले ही यहाँ किसी प्रकार की हानि न पहुँचे, न हानि का भय हो, बल्कि पूरी तरह लाभ ही लाभ दीख पड़े, फिर भी वह उसे बुराई ही समझता है और विश्वास रखता है कि यदि मैं सांसारिक क्षणिक जीवन में नुक़सान या सज़ा से बच गया और कुछ दिन आनन्द करता रहा तब भी अन्त में अल्लाह के अज़ाब से न बचूँगा।
ये दो विभिन्न विचारधाराएँ हैं, जिनके प्रभाव से मनुष्य दो विभिन्न तरीके़ अपनाता है। जो व्यक्ति ‘आख़िरत’ पर विश्वास नहीं रखता उसके लिए संभव नहीं कि वह एक पग भी इस्लाम के मार्ग पर चल सके। इस्लाम कहता है कि ईश्वरीय मार्ग में ग़रीबों को ज़कात दो, वह उत्तर देता है कि ज़कात से मेरा धन घट जाएगा, मैं तो अपने धन पर उल्टा ब्याज लूँगा और ब्याज की डिग्री में ग़रीबों के घर का तिनका तक व़ु$र्व़$ करा लूँगा। इस्लाम कहता है: हमेशा सत्य बोलो और झूठ से बचो, भले ही सच्चाई में कितनी ही हानि और झूठ में कितना ही लाभ हो। वह उत्तर देता है कि मैं ऐसी सच्चाई को लेकर क्या करूँ जिससे मुझे हानि पहुँचे और लाभ कुछ न हो? और ऐसे झूठ से क्यों बचूँ जो लाभदायक हो और जिसमें बदनामी का भय तक न हो? वह एक निर्जन मार्ग से जाता है, एक क़ीमती चीज़ पड़ी हुई उसको दीख पड़ती है। इस्लाम कहता है कि यह तेरा माल नहीं है, तू इसको कभी भी न ले। वह उत्तर देता है कि बिना मूल्य के आई हुई चीज़ को क्यों छोड़ दूँ। यहाँ कोई देखने वाला नहीं है, जो पुलिस को सूचना दे या अदालत में गवाही दे, या लोगों में मुझे बदनाम करे, फिर क्यों न मैं इससे लाभ उठाऊँ? एक व्यक्ति चुपके से उसके पास अमानत रखवाता है और मर जाता है। इस्लाम कहता है कि किसी की धरोहर न मारो, उसका माल उसके बाल-बच्चों को पहुँचा दो। वह कहता है क्यों? कोई गवाही इस बात की नहीं कि मरनेवाले का माल मेरे पास है, ख़ुद उसके बाल-बच्चों को इसकी ख़बर तक नहीं है। जब मैं आसानी के साथ इसको खा सकता हूँ और किसी दावे या किसी बदनामी का भय भी नहीं, तो क्यों न इसे खा जाऊँ?
तात्पर्य यह कि जीवन-यात्रा में हर क़दम पर इस्लाम उसको एक तरीके़ पर चलने की शिक्षा देगा, और वह उसके बिल्कुल विरुद्ध दूसरा मार्ग अपनाएगा, क्योंकि इस्लाम में हर चीज़ का महत्व और मूल्य आख़िरत के शाश्वत परिणाम की दृष्टि से है, परन्तु वह व्यक्ति हर मामले में उन परिणामों को देखता है जो इस संसार के क्षणिक जीवन में सामने आते हैं।
अब आप समझ सकते हैं कि आख़िरत पर ईमान लाए बिना मनुष्य क्यों मुसलमान नहीं हो सकता। मुसलमान तो बड़ी चीज़ है, सत्य तो यह है कि आख़िरत को न मानना मनुष्य को मानवता से गिराकर पशुता से भी बदतर अवस्था में ले जाता है।

परलोक (आख़िरत) की धारणा की सत्यता‘परलोक’ की धारणा की आवश्यकता और उसके लाभ आपको मालूम हो गए। अब हम संक्षेप में आपको यह बताते हैं कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने ‘परलोक’ की धारणा के विषय में जो कुछ बयान किया है, बौद्धिक दृष्टिकोण से भी वही सत्य प्रतीत होता है, यद्यपि परलोक पर हमारा ईमान केवल अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) पर विश्वास के कारण है, बुद्धि उसका आधार नहीं है, परन्तु जब हम सोच-विचार से काम लेते हैं तो हमें ‘परलोक’ की सभी धारणाओं में सबसे अधिक यही धारणा अक़्ल के मुताबिक़ प्रतीत होती है।
‘परलोक’ के बारे में तीन विभिन्न धारणाएं पाई जाती हैं। एक गिरोह कहता है कि मनुष्य मरने के पश्चात् मिट जाता है, फिर कोई ज़िन्दगी नहीं। यह नास्तिकों का विचार है जो वैज्ञानिक होने का दावा करते हैं।
दूसरा गिरोह कहता है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार इसी संसार में जन्म लेता है। यदि उसके कर्म बुरे हैं तो वह दूसरे जन्म में कोई जानवर जैसे कुत्ता या बिल्ली बनकर आएगा, या कोई पेड़ बनकर पैदा होगा या किसी निम्न श्रेणी के मनुष्य का रूप धारण करेगा और यदि कर्म अच्छे हैं तो अधिक उच्च श्रेणी में पहुँचेगा। यह विचार केवल कुछ अपरिपक्व धर्मों में पाया जाता है।
तीसरा गिरोह ‘क़ियामत’ और ‘हश्र’ (Resurrection) और अल्लाह की अदालत में पेशी और पुरस्कार और दंड की प्राप्ति पर ‘ईमान’ रखता है। यह सारे नबियों (पैग़म्बरों) की सर्वमान्य धारणा है।
अब पहले गिरोह की धारणा पर ग़ौर कीजिए। इन लोगों का यह कहना है कि मरने के पश्चात् किसी को ज़िन्दा होते हमने नहीं देखा। हम तो यही देखते हैं कि जो मरता है वह मिट्टी में मिल जाता है। इसलिए मृत्यु के पश्चात् कोई जीवन नहीं, परन्तु विचार कीजिए क्या यह कोई दलील है? मरने के बाद आपने किसी को जीवित होते नहीं देखा तो आप ज़्यादा से ज़्यादा यह कह सकते हैं, ‘‘हम नहीं जानते कि मरने के बाद क्या होगा?’’ इससे आगे बढ़कर आप यह दावा जो करते हैं ‘‘हम जानते हैं कि मरने के बाद कुछ न होगा।’’ इसका आपके पास क्या सुबूत है? एक गंवार ने यदि हवाईजहाज़ नहीं देखा तो वह कह सकता है, ‘‘मुझे नहीं मालूम कि हवाईजहाज़ क्या चीज़ है?’’ परन्तु जब वह कहेगा कि ‘‘मैं जानता हूँ, हवाईजहाज़ कोई चीज़ नहीं है।’’ तो बुद्धिमान उसे बेवव़ू$फ़ कहेंगे। इसलिए कि उसके किसी चीज़ को न देखने का यह अर्थ नहीं होता कि वह चीज़ है ही नहीं। एक व्यक्ति तो क्या यदि सम्पूर्ण संसार के लोगों ने भी किसी चीज़ को न देखा हो, तो यह दावा नहीं किया जा सकता कि वह नहीं है या नहीं हो सकती।
इसके बाद दूसरी धारणा को लीजिए। इस धारणा के अनुसार एक व्यक्ति जो इस समय इनसान है वह इसलिए इन्सान हो गया है कि जब वह जानवर था तो उसने अच्छे कर्म किए थे। और एक जानवर जो इस समय जानवर है वह इसलिए जानवर हो गया कि मनुष्य योनि में उसने बुरे अमल किए थे। दूसरे शब्दों में यूँ कहिए कि मनुष्य, पशु और पेड़ होना सब दरअसल पूर्व जन्म के कर्मों का नतीजा है।
अब प्रश्न यह है कि पहले क्या चीज़ थी? यदि कहते हैं कि पहले मनुष्य था, तो मानना पड़ेगा कि उससे पहले जानवर या पेड़ होंगे नहीं तो पूछा जाएगा कि मानव का जिस्म उसे किस अच्छे कर्म के बदले में मिला। यदि कहते हैं जानवर या पेड़ था तो, मानना पड़ेगा कि उससे पहले मनुष्य हो अन्यथा प्रश्न होगा कि पेड़ या जानवर की योनि में वह किस बुरे कर्म का दंड भोगने आया है? मतलब यह कि इस अक़ीदे के माननेवाले सृष्टि के जीव आदि का आरंभ किसी योनि से भी निश्चित नहीं कर सकते, क्योंकि प्रत्येक योनि से पहले एक योनि का होना आवश्यक है ताकि बादवाली योनि को पहली योनि के व्यवहार का नतीजा कहा जाए। यह बात साफ़ तौर से बुद्धि के विरुद्ध है।
अब तीसरी धारणा को लीजिए। इसमें सबसे पहले यह कहा गया है, ‘‘एक दिन क़ियामत आएगी और अल्लाह अपने इस अस्थाई कारख़ाने को तोड़-फोड़ कर नए सिरे से एक दूसरा ऊँचे दर्जे का स्थाई कारख़ाना बनाएगा।’’ यह ऐसी बात है जिसके सही होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। दुनिया के इस कारख़ाने पर जितना विचार किया जाता है उतना ही अधिक इस बात का सुबूत मिलता है कि यह सदैव रहनेवाला कारख़ाना नहीं है, क्योंकि जितनी शक्तियाँ इसमें काम कर रही हैं वे सब सीमित हैं और एक दिन वे निश्चय ही ख़त्म हो जाएँगी। इसलिए समस्त वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हो चुके हैं कि एक दिन सूर्य ठंडा और प्रकाशहीन हो जाएगा, ग्रह एक-दूसरे से टकराएँगे और संसार नष्ट हो जाएगा।
दूसरी बात यह कही गई है कि मनुष्य को पुनः जीवन दिया जाएगा। यह भी एक ऐसी बात है जिसके संभव होने में किसी सन्देह की गुंजाइश नहीं है। यदि इसको असंभव कहा जाए तो प्रश्न उठता है कि जो जीवन मनुष्य को इस समय प्राप्त है यह कैसे संभव हो गया? स्पष्ट है कि जिस ईश्वर ने इस दुनिया में मनुष्य को पैदा किया है वह दूसरे संसार में भी पैदा कर सकता है।
तीसरी बात यह है कि मनुष्य ने इस सांसारिक जीवन में जितने कर्म किए हैं उन सब का लेखा-जोखा (Record) सुरक्षित है और वह हश्र के दिन प्रस्तुत होगा। यह ऐसी चीज़ है जिसका प्रमाण आज हमें इस संसार में भी मिल रहा है। पहले समझा जाता था कि जो आवाज़ हमारे मुँह से निकलती है वह हवा में थोड़ी-सी लहर पैदा करके नष्ट हो जाती है, परन्तु अब मालूम हुआ कि प्रत्येक आवाज़ अपने चारों ओर की चीज़ों पर अपना चिन्ह छोड़ जाती है जिसको पुनः पैदा किया जा सकता है। ऑडियो और वीडियो टेप और सीडियां इसी सिद्धांत पर बनी हैं। इसी से यह मालूम हुआ कि हमारी हर गतिविधि का रिकार्ड उन सब चीज़ों पर अंकित हो रहा है, जो किसी रूप में इस गतिविधि के सम्पर्क में आती हैं। जब हाल यह है तो यह बात सर्वथा विश्वसनीय प्रतीत होती है कि हमारे कर्मों का पूरा लेखा-जोखा सुरक्षित है और पुनः उसे पेश किया जा सकता है।
चौथी बात यह है कि ईश्वर ‘हश्र’ (पुनरुत्थान) के दिन अदालत करेगा और सत्यतापूर्वक हमारे अच्छे-बुरे कर्मों का पुरस्कार या दंड देगा। इसको कौन असंभव कह सकता है? इसमें कौन-सी बात बुद्धिसंगत नहीं है? बुद्धि तो स्वयं यह चाहती है कि कभी अल्लाह की अदालत हो और ठीक-ठीक सत्यतापूर्वक फ़ैसले किए जाएँ। हम देखते हैं कि एक व्यक्ति भलाई करता है और उसका कोई फ़ायदा उसको संसार में नहीं प्राप्त होता। एक व्यक्ति बुराई करता है और इससे कोई हानि उसको नहीं पहुँचती। यही नहीं बल्कि हम हज़ारों मिसालें ऐसी देखते हैं कि एक व्यक्ति ने भलाई की और उसे उल्टा नुक़सान हुआ और एक व्यक्ति ने बुराई की और वह भली-भाँति सुख भोगता रहा। इस प्रकार की घटनाओं को देखकर बुद्धि की यह माँग होती है कि कहीं न कहीं अच्छे मनुष्य को भलाई का और दुष्ट मनुष्य को दुष्टता का फल मिलना चाहिए।
अन्तिम चीज़ ‘स्वर्ग’ (जन्नत) और ‘नरक’ (जहन्नम) हैं। इनका होना भी असंभव नहीं। यदि सूर्य और चन्द्रमा और मंगल और भूमि को ईश्वर बना सकता है, तो ‘स्वर्ग’ और ‘नरक’ न बना सकने की क्या दलील है? जब वह अदालत करेगा और लोगों को पुरस्कार और दंड देगा तो पुरस्कार पानेवालों के लिए कोई सम्मान और आनन्द और हर्ष का स्थान और दंड पानेवालों के लिए कोई अपमान और दुःख और कष्ट का स्थान भी होना चाहिए।
इन बातों पर जब आप विचार करेंगे तो आपकी बुद्धि स्वयं कह देगी मनुष्य के परिणाम के विषय में जितनी भी धारणाएँ संसार में पाई जाती हैं उनमें सबसे ज़्यादा दिल को लगती हुई धारणा यही है, और इसमें कोई चीज़ बुद्धि के विरुद्ध या असंभव नहीं है।
फिर जब ऐसी एक बात मुहम्मद (सल्ल॰) जैसे सच्चे नबी (पैग़म्बर) ने कही है, और इसमें सर्वथा हमारी भलाई है तो, बुद्धिमानी यह है कि इसपर विश्वास किया जाए, न यह कि यूँ ही अकारण बिना किसी तर्व$ और प्रमाण के सन्देह किया जाए, या रद्द कर दिया जाए।
http://www.islamdharma.org/article.aspx?ptype=A&menuid=28


क़ुरआन
◌ शाब्दिक अर्थ—क़ुरआन का शाब्दिक अर्थ है ‘पढ़ी जाने वाली चीज़’।
◌ पारिभाषिक अर्थ—इस्लाम की परिभाषा में क़ुरआन उस ईशग्रंथ को कहते हैं जो ईशग्रंथों की दीर्घकालीन श्रृंखला की अन्तिम कड़ी के रूप में अवतरित हुआ। इसका अवतरण जिस शब्द से शुरू हुआ। वह था–‘इक़रा’, यानी ‘‘पढ़ो!’’ लगभग 1400 वर्ष से अधिक काल बीता, एक दिन के भी अन्तर बिना यह ग्रंथ लगातार पढ़ा जाता रहा है। वर्तमान युग में किसी दिन-रात एक क्षण भी ऐसा नहीं बीतता जब विश्व के किसी न किसी भाग में यह पढ़ा न जा रहा हो। इस धरातल पर हर समय-बिन्दु पर कहीं न कहीं नमाज़ अवश्य पढ़ी जा रही होती है, और नमाज़ में क़ुरआन का कोई अंश, कोई भाग या कोई छोटा-बड़ा अध्याय पढ़ना अनिवार्य होता है। इसी प्रकार कहीं न कहीं क़ुरआन-पाठ (अर्थात् इसका पठन-पाठन, तिलावत) हर क्षण होता रहता है। यूँ यह ग्रंथ पूरे विश्व में सबसे अधिक ‘पढ़ी जाने वाली चीज़’ है।
◌ परिचय—ईशग्रंथ क़ुरआन, फ़रिश्ता ‘जिबरील’ के माध्यम से पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) पर अरब प्रायद्वीप के शहर मक्का से मिले हुए पहाड़ी सिलसिले के एक पहाड़ की ‘हिरा’ नामक गुफ़ा में अवतरित होना आरंभ हुआ जिसमें आप कई-कई दिन-रात ध्यान-ज्ञान, चिन्तन-मनन (तहन्नुस) के लिए वास किया करते थे। परिस्थिति और आवश्यकतानुसार थोड़ा-थोड़ा करके हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के पैग़म्बरीय जीवन में, आप (सल्ल॰) के देहावसान से तीन महीने पूर्व तक अवतरित होता रहा। इसका पूरा अवतरणकाल 7,959 दिन(21 साल 7 मास सौर-वर्ष 22, वर्ष 5 मास चान्द्र-वर्ष) है। क़ुरआन की भाषा अरबी है जो डेढ़ हज़ार साल बीतने पर भी बड़ी उन्नत, उत्कृष्ट, धनी, सजीव, सशक्त और आधुनिक शैली व व्याक्रण रखती है। इसमें छोटे-बड़े 114 अध्याय (सूरः) है लेकिन इसका अध्यायीकरण मानव-रचित पुस्तकों की भाँति, किसी विशेष विषय, तथा किसी निश्चित शीर्षक से संबंधित व्याख्या पर ही आधारित नहीं है बल्कि अधिकतर अध्यायों में बहुत सारे विषयों पर वार्ता की गई, आदेश-निर्देश, नियम, क़ानून दिए गए, शिक्षाएँ दी गईं, पिछली क़ौमों का वृत्तांत बयान किए गए, एकेश्वरत्व के पक्ष में तथा अनेकेश्वरत्व के खंडन में तर्क दिए गए हैं। स्वर्ग और नरक के प्रभावशाली चित्रण किए गए, मानवजाति की अन्तरात्मा, बुद्धि-विवेक एवं चिंतन-शक्ति को बार-बार आवाज़ देकर उसे एकेश्वरवाद का आह्वान दिया गया है। मनुष्य के व्यक्तित्व के दोनों अभाज्य पक्षों—आध्यात्मिकता व भौतिकता—में अति-उत्तम, अति-सुन्दर सामंजस्य व संतुलन को समाहित करने वाला जीवन-विधान सुझाया गया तथा उसे स्वीकार व ग्रहण करने पर उभारा गया है।
क़ुरआन में कुल 6,233 आयतें (वाक्य) हैं। अरबी वर्णमाला के कुल 30 अक्षर 3,81,278 बार आए हैं। ज़ेर (इ की मात्राएँ) 39,582 बार, ज़बर (अ की मात्राएँ) 53,242 बार, पेश (उ की मात्राएँ) 8,804 बार, मद (दोहरे, तिहरे ‘अ’ की मात्राएँ) 1771 बार, तशदीद (दोहरे अक्षर के प्रतीक) 1252 बार और नुक़ते (बिन्दु) 1,05,684 हैं। इसके 114 में से 113 अध्यायों का आरंभ ‘‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’’ से हुआ है, अर्थात् ‘‘शुरू अति कृपाशील, अति दयावान अल्लाह के नाम से।’’ पठन-पाठन और कंठस्थ में आसानी के लिए पूरे ग्रंथ को 30 भागों में बांट कर हर भाग का नामांकरण कर दिया गया है। हर भाग ‘पारा’ (Part) कहलाता है।
◌ अवतरण—पवित्र क़ुरआन, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के हृदय पर, ईश-वाणी की हैसियत से ईशप्रकाशना (वह्य, Divine Revelation) के रूप में अवतरित हुआ। यह अवतरण17, अगस्त, 610 ई॰ को शुरू हुआ। इसका कोई अंश आप (सल्ल॰)पर अवतरित होता तो आपकी स्थिति बदल जाती; कभी बहुत अधिक पसीना आ जाता, कभी आपका वज़्न बढ़ जाता, इतना अधिक कि यदि आप सवारी (ऊंटनी) पर होते तो यूँ दिखता कि वह बहुत अधिक भार से दबी जा रही है; अक्सर वह ऊँटनी बैठ जाती। वह्य पूरी हो जाने पर आप, और सवारी की स्थिति सामान्य हो जाती।
◌ लेखन—हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) स्वयं पढ़े-लिखे न थे। क़ुरआन का जो भी अंश अवतरित होता वह विशेष ईश्वरीय प्रावधान से आपको कंठस्थ (याद) हो जाता [सूरः क़ियामः (75) आयत 17-19] आप तुरंत या शीघ्रताशीघ्र अपने साथियों को बोल कर उसे लिखवा देते। इतिहास में प्रमाणित तौर पर ऐसे लिखने वालों (वह्य-लिपिकों) की संख्या 41 उल्लिखित है। उन सब के नाम, पिता के नाम, क़बीले (वंश, कुल) के नाम भी इतिहास के रिकार्ड पर हैं।
◌ संकलन—हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) क़ुरआन के लिपिकों को यह आदेश भी तुरन्त ही दे देते कि इस आयत/अंश को (ईशनिर्देशित क्रम के अनुसार) अमुक आयत/अंश के बाद/पहले रख लो। इस प्रकार पूरा क़ुरआन ईश-अपेक्षित क्रमानुसार, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन में ही क्रमबद्ध और संकलित हो गया। अंत में फ़रिश्ता ‘जिबरील’ ने पैग़म्बर (सल्ल॰) को, और पैग़म्बर (सल्ल॰) न जिबरील को पूरा क़ुरआन सुनाया। इस तरह ‘अन्तिम जाँच’ की इस विशिष्ट प्रणाली व प्रयोजन से गुज़र कर, ईश्वरीय स्वीकृति के तहत ईश-ग्रंथ क़ुरआन प्रामाणिकता व विश्वसनीयता के उच्चतम मापदंड पर मानवजाति के शाश्वत मार्गदर्शन के लिए तैयार हो गया।
◌ संरक्षण—क़ुरआन को चूँकि रहती दुनिया तक के लिए, समस्त संसार में मानव-जाति का मार्गदर्शन करना था और इस बात को भी निश्चित बनाना था कि ईश-वाणी पूरी की पूरी सुरक्षित हो जाए, एक शब्द भी न कम हो न ज़्यादा, इसमें किसी मानव-वाणी की मिलावट, कोई बाह्य हस्तक्षेप, संशोधन-परिवर्तन होना संभव न रह जाए इसलिए ईश्वरीय स्तर पर तथा मानवीय स्तर पर इसके कई विशेष प्रयोजन किए गए:
एक : चूँकि इससे पहले के ईशग्रंथों में मानवीय हस्तक्षेप से बहुत कुछ कमी-बेशी हो चुकी थी इसलिए क़ुरआन के संरक्षण की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने अपने ऊपर ले ली। ख़ुद क़ुरआन में उल्लिखित है—‘‘हमने इसे अवतरित किया और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करेंग’’ (सूरः हिज्र 15, आयत 9)। ईश्वर ने इसके लिए निम्नलिखित प्रावधान किए—
दो : प्राथमिक स्तर पर ईश्वर ने पैग़म्बर को पूरा ग्रंथ कंठस्थ (Memorise) करा दिया, क़ुरआन में इसकी पुष्टि भी कर दी (सूर: 75, आयत 17-19)
तीन : पैग़म्बर (सल्ल॰) के कई साथियों ने क़ुरआन को पूर्ण शुद्धता के साथ कंठस्थ (हिफ़्ज़) कर लिया।
चार : पैग़म्बर (सल्ल॰) के जीवन-काल में ही क़ुरआन का संकलन-कार्य पूरा कर लिया गया।
पाँच : पैग़म्बर (सल्ल॰) के देहावसान (632 ई॰) के बाद आपके दो उत्तराधिकारियों (ख़लीफ़ाओं हज़रत अबूबक्र (रज़ि॰) और हज़रत उमर (रज़ि॰) के शासन-काल (632-644 ई॰) में उनकी व्यक्तिगत निगरानी में सारे लिपिकों की लिखित सामग्री को एक-दूसरे से जाँच कर तथा ग्रंथ के कंठस्थकारों से पुनः-पुनः जाँच कर, पैग़म्बर (सल्ल॰) के निर्देशित क्रम में पुस्तक-रूप में ले आया गया। फिर तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान (रज़ि॰) के शासनकाल (644-656 ई॰) में इस ग्रंथ की सात प्रतियाँ तैयार की गईं। एक-एक प्रति इस्लामी राज्य के विभिन्न भागों (यमन, सीरिया, फ़िलिस्तीन, आरमेनिया, मिस्र, इराक़ और ईरान) में सरकारी प्रति के तौर भी भेज दी गई। उनमें से कुछ मूल-प्रतियाँ आज भी ताशकन्द, इस्तंबूल आदि के संग्रहालयों में मौजूद हैं।
छः : ईश्वर ने ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को आदेश देकर चैबीस घंटों में प्रतिदिन पाँच बार की अनिवार्य नमाज़ों में क़ुरआन के कुछ अंश पढ़ना अनिवार्य कर दिया। इसके अलावा स्वैच्छिक नमाज़ों में भी इसे अनिवार्य किया गया। रमज़ान के महीने में रात की नमाज़ (तरावीह) में पूरा क़ुरआन पढ़े जाने और सुने जाने को ‘महापुण्य’ कहकर पूरे विश्व में प्रचलित किया गया। पूरे क़ुरआन को (या कुछ अध्यायों को) कंठस्थ करना ‘महान पुण्य कार्य’ कहा गया, और लाखों-करोड़ों लोगों ने पूर्ण ग्रंथ को, तथा संसार के सभी मुसलमानों ने ग्रंथ के कुछ अध्यायों को कंठस्थ कर लिया। (यह क्रम 1400 वर्ष से जारी है) भविष्य में भी जारी रहेगा)। इस प्रकार क़ुरआन अपने मूलरूप में (पूरी शुद्धता, पूर्णता व विश्वसनीयता के साथ) सुरक्षित हो गया।
◌ प्रसारण—छापाख़ानों (प्रिंटिंग प्रेस) के आविष्कार से पहले दुनिया भर के मुसलमानों में क़ुरआन को हाथ से लिखने की प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित हुई और ग्रंथ का प्रसारण कार्य जारी रखा गया। इसे अपने जीवन का महान सौभाग्य समझने की मानसिकता अत्यधिक बढ़ी। मूर्तिकला व चित्रकला के, इस्लाम में वर्जित होने के कारण, मुसलमानों की कला-वृत्ति क़ुरआन की ‘लेखन-कला’ पर केन्द्रित हो गई। भवनों और मस्जिदों पर क़ुरआन की आयतें लिखी जाने का प्रचलन आम हो गया।
फिर मुद्रण-प्रणाली का आविष्कार हो जाने पर क़ुरआन के मुद्रण प्रकाशन के हज़ारों-लाखों केन्द्र स्थापित हो गए। वर्तमान में विश्व भर में प्रतिदिन क़ुरआन की लाखों प्रतियाँ छपती तथा एक विशाल वैश्वीय वितरण प्रणाली द्वारा संसार के कोने-कोने में प्रसारित हो रही हैं। इस समय क़ुरआन, विश्व में मात्र एक ही ऐसा ईशग्रंथ है जो सारी पुस्तकों-ग्रंथों से ज़्यादा छपता, प्रकाशित व प्रसारित होता, उपहार में दिया जाता, ख़रीदा जाता, पढ़ा जाता और आदर व सम्मान किया जाता है। दुनिया के लगभग 100 प्रतिशत मुस्लिम घरों में, लगभग 10 प्रतिशत ग़ैर-मुस्लिम घरों में तथा लगभग 60 प्रतिशत पुस्तकालयों में क़ुरआन की कम-से-कम एक प्रति मौजूद है। साथ ही कई वेबसाइट्स व इन्टरनेट पर क़ुरआन अपनी मूल-लिपि में उपलब्ध करा दिया गया है।
◌ अनुवाद और भाष्य—क़ुरआन चूँकि विशुद्ध ईशवाणी है अतः कोई मनुष्य इसका अनुवाद नहीं कर सकता क्योंकि मानव-वाणी में इसकी पूर्ण क्षमता व सामर्थ्य नहीं है। लेकिन चूँकि यह ग्रंथ संपूर्ण मानवजाति के पथ-प्रदर्शन के लिए है और संसार का हर व्यक्ति क़ुरआनी (अरबी) भाषा में निपुण नहीं हो सकता इसलिए विद्वानों और क़ुरआनी अरबी भाषा के ज्ञानियों ने क़ुरआन के ‘अर्थ’ का ‘अनुवाद’ और क़ुरआन के भावार्थ का ‘भाष्य’ लिखा। हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी सहित, दुनिया की सैकड़ों भाषाओं में ऐसे अनुवाद व भाष्य हो चुके हैं। विशेष रूप से भारत की सारी प्रमुख (क्षेत्रीय) भाषाओं—मनीपुरी, असमिया, बंगला, उड़िया, गुजराती, कन्नड़, मराठी, तेलुगू, मलयाली, तमिल, गुरमुखी आदि भाषाओं में देशवासियों को उपलब्ध कराया गया है। साथ ही हिन्दी व अंग्रेज़ी तथा उर्दू में वेबसाइट्स पर भी क़ुरआन के अर्थों के अनुवाद और भाष्य उपलब्ध हैं।
◌ क़ुरआन का विषय—क़ुरआन का विषय प्रमुखतः ‘इन्सान और ईश्वर’ है। अर्थात्, इन्सान की हक़ीक़त, ईश्वर की हक़ीक़त और इन्सान व ईश्वर के बीच संबंध की हक़ीक़त । पूरा क़ुरआन इन ही तीन हक़ीक़तों की व्याख्या है।
यद्यपि क़ुरआन में ज्ञान-विज्ञान के अनेकानेक क्षेत्रों से संबंधित अनेक विषयों पर चर्चा हुई है परन्तु चर्चा का मूल उद्देश्य विद्यालयों के शिक्षार्थियों की तरह, मनुष्यों को तत्संबंधित विषयों की सांसारिक शिक्षा व ज्ञान देना नहीं, बल्कि उस ज्ञान-विज्ञान द्वारा मानवजाति को ईश्वर व उसके ईश्वरत्व की सही पहचान कराना है जिसे पहचान लेने, जिसे समझ लेने और जिस पर पूरा विश्वास कर लेने के परिणामस्वरूप मनुष्य स्वयं अपने को, अपनी वास्तविकता को, अपने पैदा किए जाने के उद्देश्य को, अपने व ईश्वर के बीच यथार्थ संबंध को, उसके प्रति अपने कर्तव्यों को, ईश्वर के अधिकारों को तथा उसकी महानता, शक्ति, सामर्थ्य को भी पहचान लेता है; नेकी व बदी; भलाई व बुराई; पुण्य व पाप; वास्तविक लाभ व वास्तविक हानि के बीच फ़र्क़ करने में उतना सक्षम व कुशल हो जाता है जितना, मात्र अपनी सीमित बुद्धि से, अपनी पन्चेंद्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान और स्वयं अपने तजुर्बों से नहीं हो सकता।
क़ुरआन में जीव-विज्ञान, (Zoology) खगोल-विज्ञान (Astronomy), बनस्पति-विज्ञान (Botony), प्रजनन (Reproduction), शरीर-संरचना (Anatomy), समुद्र-विज्ञान (Oceanology) पर्यावरण (Ecology), भूगोलशास्त्रा (Geography), भ्रूण-विद्या (Embryology), इतिहास (History), समाजशास्त्र (Sociologhy), अर्थशास्त्र (Economics), मानव-विज्ञान (Humanities), सृष्टि-रचना (Creation of Universe) आदि विषयों पर काफ़ी चर्चा हुई है। यह चर्चा हमारी विषयबद्ध पुस्तकों की तरह एकत्र नहीं बल्कि पूरे क़ुरआन में जगह-जगह बिखरी हुई है तथा बार-बार उल्लिखित हुई है।
इसके द्वारा—
● ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण दिए गए हैं।
● सतर्कपूर्ण शैली में ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद’ पर पूर्ण विश्वास की सामग्री प्रस्तुत की गई है।
● ‘एक ईश्वर’ के अतिरिक्त ‘अनेक-ईश्वर’—अर्थात् ईश्वर की शक्ति, सत्ता, क्षमता में ‘कुछ दूसरों’ के भी साझी, शरीक होने का बुद्धिसंगत खंडन किया गया है। इसके लिए मानव-संरचना एवं सृष्टि संरचना तथा अन्य विज्ञानों से तर्क दिए गए हैं।
● ‘मात्र एह ही ईश्वर’ के स्रष्टा, प्रभु, स्वामी एवं पालक-पोषक होने के तर्क पर केवल उसी के ही पूज्य-उपास्य होने के तर्क जुटाए गए हैं, और विशुद्ध एकेश्वरवादी जीवन बिताने का आह्नान दिया गया है।
● ईश्वर की इन्कारी, बाग़ी, उत्पाती, अवज्ञाकारी क़ौमों के वृत्तांत बयान करके उनके सांसारिक दुष्परिणाम, और तबाह कर दिए जाने के ईश्वरीय प्रकोप का इतिहास बताया गया और मानवजाति को चेतावनी दी गई है कि ईश्वर के प्रति उद्दंडता करते हुए ‘भवन-निर्माण’ और ‘सभ्यता’ में अस्थाई रूप से चाहे जितनी भौतिक ‘उन्नति’ कर लो, तुम्हारा नैतिक व आध्यात्मिक पतन एक दिन तुम्हें ले डूबेगा। भवन ध्वस्त कर दिए जाएँगे, बस्तियाँ तलपट कर दी जाएँगी, नगर के नगर बसी-बसाई हालत में उलट दिए जाएँगे, या ज़मीन में नीचे तक धँसा दिए जाएँगे। ईश्वर, तुम्हें सुधरने के अवसर और ढील तो बहुत देता है परन्तु ज़मीन पर चल फिर कर (खण्डहरों को तथा ख़ोदाई में निकले नगरों के पुरातत्व अवशेषों को) देखो, यह ढील हमेशा के लिए नहीं दी जाती क्योंकि हमेशा की ढील देना ईश्वरीय गुण व तत्वदर्शिता के प्रतिकूल है।
● बौद्धिक व वैज्ञानिक आधार पर इस बात के तर्क प्रस्तुत किए गए हैं कि (परलोक में, मनुष्यों के इहलौकिक अच्छे या बुरे कर्मों का लेखा-जोखा, हिसाब-किताब करके उन्हें स्वर्ग का पुरस्कार या नरक का दंड देने के लिए) मानव को सांसारिक शरीर के साथ पुनः अस्तित्व व जीवन दे देना ईश्वर के लिए बहुत ही आसान होगा। वह निर्जीव से जीव को तथा जीव से निर्जीव को उत्पन्न तो इस संसार में भी बराबर करता रहता है। उसका यह सामर्थ्य सर्वज्ञात, सर्वविदित है।
क़ुरआन पुकारता है—ऐ लोगो...
ईश्वर सारे लोगों का स्रष्टा है। वह सब का पालनहार और स्वामी है। सब उसके बन्दे, दास हैं। उसी के हाथ में हर प्राणी का जीवन व मृत्यु, स्वास्थ्य व रोग सब कुछ है। सृष्टि की सारी शक्तियों, तत्वों, पदार्थों और ऊर्जा-स्रोतों को प्रत्यक्ष या परोक्ष, सब इन्सानों की सेवा में उसी ने लगा रखा है। वह निष्पक्ष होकर सारे लोगों को दिन-रात, हर पल अपनी दया, कृपा, करुणा व अनुकंपा के मोती लुटा रहा है। वह सब का है, सब उसके हैं।
अल्लाह की इसी असीम दयालुता और अपार कृपाशीलता का तक़ाज़ा है कि मानवजाति की शारीरिक व भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करने के साथ-साथ उसकी आध्यात्मिक व नैतिक आवश्यकताएँ भी पूरी करे और उसे सत्यमार्ग की खोज में ठोकरें खाने के लिए न छोड़ दे बल्कि सही दिशा में उसके पथ-प्रदर्शन का दृढ़ व विश्वसनीय प्रावधान करे। इसके लिए उसने मानवता-विकास के पूर्ववर्ती चरणों में तत्कालीन समाज के किसी उत्तम व्यक्ति को चुनकर ‘पथ-प्रदर्शक’ नियुक्त करने का सिलसिला जारी रखा। क़ुरआन के शब्दों में, हर जाति व क़ौम के लिए पथ-प्रदर्शक (‘हादी’) नियुक्त किया गया।’’ (13:7) ऐसे पथ-प्रदर्शक को इस्लामी परिभाषा में ‘नबी’ और ‘रसूल’ कहा जाता है। ऐसे पथ-प्रदर्शकों में से, आवश्यकतानुसार कुछ को ईश्वरीय ग्रंथ भी प्रदान किए गए जो तत्कालीन मानव-संस्कृति व सभ्यता के अंतर्गत, मनुष्य की व्यक्तिगत व सामूहिक जीवन-पद्धति का ईश्वरीय विधान हुआ करते थे। अंत में आज से लगभग 1400 वर्ष पूर्व हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को हादी, नबी, रसूल नियुक्त किया गया जो ईशदूत श्रृंखला की अन्तिम कड़ी थे और आप पर ईश-प्रकाशना (Divine Revelation) द्वारा ईशग्रंथ-श्रृंखला का अन्तिम संस्करण ‘क़ुरआन’ अवतरित किया गया। फ़रिश्ता ‘जिबरील’ के माध्यम से 23 वर्ष की अवधि में थोड़ा-थोड़ा करके ईशवाणी आप (सल्ल॰) पर अवतरित हुई। इसमें मानवजाति के हर क्षेत्र... आध्यात्मिक व सांसारिक, तथा व्यक्तिगत, कौटुम्बिक, सामूहिक व सामाजिक जीवन...से संबंधित नियम, आदेश व निर्देश हैं। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) पर, जबकि आप (सल्ल॰) की उम्र 40 वर्ष 11 दिन थी, 17 अगस्त 610 ई॰ को क़ुरआन अवतरित होना शुरू हुआ और आप (सल्ल॰) के देहावसान से 3 महीने पहले मार्च सन 632 ई॰ में सम्पूर्ण क़ुरआन अवतरित हो गया।
क़ुरआन के बारे में दुर्भाग्यवश यह ग़लत विचारधारा प्रचलित है कि यह मुस्लिम समुदाय का धर्मग्रंथ है और दूसरे धर्मावलंबियों का इससे कोई संबंध न होना चाहिए, न ही हो सकता है। लेकिन वास्तव में यह समस्त मानवजाति के लिए पथ-प्रदर्शक ग्रंथ है। क़ुरआन एक स्थान पर अपने परिचय में स्वयं को ‘‘हुदन-लिन्नास’’ (आम लोगों के लिए पथ-प्रदर्शक) कहता है (न कि मात्र मुसलमानों का पथ-प्रदर्शक) (2:185)। क़ुरआन की पहली सूरा (अध्याय) की पहली आयत हैद—‘‘सारी प्रशंसा अल्लाह के लिए है जो सारे संसारों का पालनहार है।’’ और अन्तिम सूरा की पहली आयत (का अनुवाद) हैद—‘‘कहो, कि मैं शरण चाहता हूँ लोगों के पालनहार, लोगों के स्वामी, लोगों के उपास्य की।’’
क़ुरआन में 19 जगह ‘‘ऐ लोगो’’ कहकर, 9 जगह ‘‘ऐ इन्सान’’ या ‘‘‘इन्सान’’ कहकर, और 7 जगहों पर ‘‘ऐ आदम की संतान’’ या ‘‘आदम की सन्तान’’ कहकर संबोधित किया गया है। 12 स्थान पर ‘‘ऐ अहले-किताब...’’ (अर्थात् ‘‘ऐ किताब वालो’’ कहकर यहूदी व ईसाई समुदाय को...जिनके पास क्रमशः पैग़म्बर मूसा (अलैहि॰), पैग़म्बर दाऊद (अलैहि॰), और पैग़म्बर ईसा (अलैहि॰) पर अवतरित ईश-ग्रंथ ‘तौरात व ‘ज़बूर’ और ‘इंजील’ भेजे गए थे) संबोधित किया गया है। ‘ऐ वे लोगो, जो ईमान वाले हो...’’ (अर्थात् मुसलमान) कहकर मुसलमानों को 8 स्थान पर संबोधित किया गया है। मुस्लिम समुदाय चूँकि क़ुरआन के वाहक, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के ईशदूतत्व पर तथा क़ुरआन के, ईश-ग्रंथ होने पर ईमान (विश्वास) रखता है, इसलिए क़ुरआन उसे इस ‘ईमान’ के तक़ाज़े बताता और इसी के अनुसार जीवन के हर मामले से संबंधित नियम, आदेश व निर्देश देता है। जबकि दूसरी तरफ़ जो लोग ऐसा विश्वास व ईमान नहीं रखते उनके लिए बौद्धिक तर्क एवं स्वयं उनके शरीर तथा ब्रह्माण्ड में मौजूद प्रमाणों और निशानियों के हवाले से ‘‘विशुद्ध एकेश्वरवाद’’ का आह्नान करता है। और स्वयं उन्हीं की भलाई के लिए बार-बार एकेश्वरवाद, परलोकवाद पर तथा मुहम्मद (सल्ल॰) के ईश-दूतत्व पर ईमान लाने की दावत देता है।
इस प्रकार क़ुरआन एक सार्वजनिक दावत, पुकार और आह्नान है......ईमान वालों के लिए भी और जो ईमान वाले नहीं हैं उनके लिए भी। काली-गोरी हर नस्ल के लिए, अरबवासियों के लिए भी और ग़ैर-अरबवासियों के लिए भी, पुरुषों के लिए भी और नारी जाति के लिए भी, हर भौगोलिक क्षेत्र में रहने वालों के लिए, हर युग, हर काल के लिए। निर्धन व धनवान, शिक्षित व अशिक्षित, राजा व रंक, शासक व प्रजा, मज़दूर, किसान, व्यापारी, अमीर, ग़रीब सब के लिए।
प्रस्तुत पंक्तियों में क़ुरआन की उन आयतों का अनुवाद एकत्र व संकलित कर दिया गया है जिनमें अल्लाह अपने बन्दों से ‘‘ऐ लोगो’’, और ‘‘ऐ आदम की संतान’’ और ‘‘ऐ इन्सान’’ कहकर या तो प्रत्यक्ष (Direct) रूप से संबोधन करता है या अप्रत्यक्ष (Indirect) रूप से। मानवजाति आज के युग में, जबकि बिखराव और टकराव की कुकृतियों तथा कुप्रभावों से ग्रस्त अनकानेक समस्याओं, त्रासदियों व विडम्बनाओं से जूझ रही है तथा भाँति-भाँति की बोलियाँ नस्ल, रंग, भाषा, राष्ट्र, जाति, क़ौम, सभ्यता-संस्कृति, आदि की आवाज़ें लगाकर उसे और अधिक टकराव व बिखराव के रास्ते पर बुलाकर, ध्रुवीकरण कर रही हैं, उसकी बहुत बड़ीद—बल्कि सबसे बड़ी— आवश्यकता है कि बुलाने वाला वह हो जो ‘सब का’ है। उसकी पुकार ऐसी हो जो सब को संबोधित करती हो। उसकी पुकार, उसका आह्नान सब को एक (Common) सूत्र में बाँध सकने का गुण व क्षमता रखता हो। ‘अनेकता में एकता’ (Unity in Diversity) के अप्राकृतिक, अस्वाभाविक व अव्यावहारिक स्तर के बजाए ‘मानवजाति के ऐक्य’ (Oneness of Mankind) की लड़ी में सारे मानवों को पिरो सके। क़ुरआन की पुकार इसी स्तर की पुकार है......सब के स्रष्टा, सब के प्रभु, सब के विधाता, सब के स्वामी, सब के शुभचिंतक, सब के पालनकर्ता, सब के पूज्य-उपास्य, सब के प्रति दयालु व कृपावान ईश्वर की पुकार।
ऐ लोगो... !
■ ऐ लोगो, बन्दगी इख़्तियार करो अपने उस रब की जो तुम्हारा, और तुम से पहले जो लोग हुए हैं उन सब का पैदा करने वाला है, तुम्हारे बचने की आशा1 इसी प्रकार हो सकती है। (2:21)
(1. अर्थात् दुनिया में ग़लत देखने और ग़लत काम करने से, और आख़िरत (परलोक) में अल्लाह की यातना (अज़ाब) से बचने की आशा।)■ ऐ लोगो, धरती में जो हलाल (वैध) और अच्छी-सुथरी चीज़ें हैं उन्हें खाओ और शैतान के बताए हुए रास्तों पर न चलो। वह तुम्हारा खुला दुश्मन है। (2:168)
■ ऐ लोगो, अपने रब से डरो, (या अपने रब की नाफ़मानी से बचो) जिसने तुमको ‘एक जान’ से पैदा किया और उसी जान से उसका जोड़ा बनाया और उन दोनों से बहुत मर्द और औरत दुनिया में फैला दिए। उस अल्लाह से डरो जिसका वास्ता देकर तुम एक-दूसरे से अपने हक़ माँगते हो और नाते-रिश्तों के संबंधों को बिगाड़ने से बचो। यक़ीन जानो कि अल्लाह तुम पर निगरानी कर रहा है। (4:1)
■ ऐ लोगा, यह रसूल1 तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से ‘सत्य’ लेकर आ गया है, ईमान ले आओ, तुम्हारे ही लिए बेहतर है, और अगर इन्कार करते हो तो जान लो कि आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब अल्लाह का है और अल्लाह सब कुछ जानने वाला भी है और गहरी समझ वाला भी।2 (4:170)
(1. रसूल (ईश-दूत), अर्थात् हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)
2. अर्थात् तुम्हारा ख़ुदा न तो बेख़बर है कि उसके राज्य में रहते हुए तुम शरारतें करो और उसे मालूम न हो, और न वह नादान है कि उसे अपने आदेशों का उल्लंघन करने वालों से निपटना न आता हो।)
■ ऐ लोगो, तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारे पास खुला प्रमाण आ गया है। और हमने तुम्हारी ओर ऐसा प्रकाश1 भेज दिया है जो साफ़-साफ़ रास्ता दिखाने वाला है। (4:174)
(1. अर्थात् यह मार्गदर्शक ग्रंथ क़ुरआन और यह पथ-प्रदर्शक रसूल हज़रत मुहम्मद सल्ल॰।)
■ (ऐ नबी मुहम्मद, कहो), ‘‘ऐ लोगो, मैं तुम सबकी ओर उस अल्लाह का पैग़म्बर हूँ जो ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है, उसके सिवा कोई ईश्वर नहीं है, वही ज़िन्दगी प्रदान करता है और वही मौत देता है, अतः ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके भेजे हुए उम्मी नबी1 पर जो अल्लाह और उसके आदेशों को मानता है, और उस (नबी) के अनुयायी बनो ताकि तुम सीधा मार्ग पा जाओ।’’ (7:158)
(1. ‘उम्मी’ अर्थात् ‘बे पढ़े-लिखे’, निरक्षर व अनपढ़ नबी। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) उम्मी थे अतः इस बात की कोई संभावना न थी (यद्यपि वे पढ़े-लिखे होते तब भी यह संभव न था) कि क़ुरआन जैसे महान, अद्भुत और अभूतपूर्व ग्रंथ की रचना वे स्वयं कर लेते। इसी कारण, आगे कहा गया कि आप (सल्ल॰) अल्लाह के आदेशों को मानते हैं। स्वयं कोई दार्शनिक, या धर्म-प्रवर्तक नहीं हैं। जो कुछ भी कहते या करते हैं, जो आदेश-निर्देश देते हैं अपने स्वयं-अर्जित ज्ञान से और अपने स्वच्छंद चिन्तन-मनन से नहीं बल्कि अल्लाह के उस आदेश के अनुसार जो ईश-प्रकाशना (वह्य) के रूप में (फ़रिश्ता ‘जिबरील’ के माध्यम से) आप (सल्ल॰) पर अवतरित होता है।)■ वह अल्लाह ही है जो तुम्हें जल और थल की सैर कराता है। अतएव जब तुम नौका में सवार होकर अनुकूल हवा पर प्रसन्न, और ख़ुशी के साथ सफ़र कर रहे होते हो और फिर अचानक प्रतिकूल हवा (तूफ़ान) का ज़ोर होता है और हर ओर से मौजों के थपेड़े लगते हैं उस समय सब अपने दीन-धर्म को अल्लाह के लिए ख़ालिस (एकाग्र) करके उससे दुआएँ माँगते हैं1 कि ‘‘अगर तूने हम को इस बला से निकाल दिया तो हम शुक्रगुज़ार बन्दे बनेंगे। मगर जब वह उनको बचा लेता है तो फिर वही लोग सत्य से हटकर ज़मीन में विद्रोह (और उपद्रव) करने लगते हैं। ऐ लोगो, तुम्हारा यह विद्रोह तुम्हारे ही ख़िलाफ़ पड़ रहा है। दुनिया की ज़िन्दगी के थोड़े दिनों के मज़े हैं (लूट लो), फिर तुम्हें हमारी ओर पलट कर आना है, उस समय हम तुम्हें बता देंगे कि (सांसारिक जीवन में) तुम क्या कुछ करते रहे हो।2(10:23-24)
(1. मुसीबत की घड़ियों में, जब कहीं से सहायता की आस न रह जाए, सारे उपास्यों को छोड़कर मात्र अल्लाह, ईश्वर से सहायता की विन्ती, प्रार्थना व दुआ करना सामान्य मानव-व्यवहार है। यहाँ तक कि आस्तिक तो आस्तिक, नास्तिक व्यक्ति भी ऐसा ही करता है। दुर्घटना में तबाह हो जाने वाले एक रूसी वायुयान के ‘‘बलैक-बॉक्स’’ से नास्तिक पायलट की यह अन्तिम पुकार सुनी गई, ‘‘हे ईश्वर मुझे बचा ले’’ (“Oh God, Save me!”)
(2. उपरोक्त दोग़लेपन का रवैया अपनाने वाले लोग यह न समझ बैठें कि अल्लाह की अवज्ञा, नाशुक्रगुज़ारी और विद्रोह वाली, मौज-मस्ती की ज़िन्दगी ख़त्म होते ही सब कुछ यहीं ख़त्म हो जाएगा। वास्तव में वह दिन आना ही है जब परलोक में हर व्यक्ति वापस अल्लाह के समक्ष प्रस्तुत होगा। वह जो कुछ भी यहाँ करता रहा है उसे बता और दिखा दिया जाएगा। उसके साथ पूरे का पूरा इन्साफ़ होगा, वह अपने कर्मानुसार, पुरस्कार (स्वर्ग) या यातना व प्रकोप (नरक) का भागी होगा।)
■ ऐ लोगो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से आदेश1 आ गया है। यह वह चीज़ है जो दिलों के रोग को चंगा करने के लिए है और जो उसे स्वीकार कर लें उनके लिए मार्गदर्शन और दयालुता है।  (10:57)
(1. आदेश...अर्थात् ईश्वरीय आदेश-निर्देश का ग्रंथ ‘क़ुरआन’।)
■  (ऐ नबी) कह दो, ‘‘ऐ लोगो, अगर तुम अभी तक मेरे धर्म (‘दीन’) के बारे में किसी शक में हो तो सुन लो कि तुम अल्लाह के सिवा जिसकी बन्दगी (और उपासना) करते हो, मैं उनकी बन्दगी नहीं करता1 बल्कि सिर्फ़ उसी अल्लाह की बन्दगी करता हूँ जिसके अधिकार में तुम्हारी मौत है। मुझे (अल्लाह की ओर से) आदेश दिया गया है कि मैं ईमान वालों में से हूँ।’’  (10:104)
(1. इस्लाम और ग़ैर-इस्लाम में मूल-अन्तर यही है और यही इस्लाम की विशिष्टता है जिसका एलान अल्लाह अपने रसूल, हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के द्वारा और पूरी मानव-जाति के लिए करा रहा है। इसके अनुसार, किसी को इस शक में नहीं रहना चाहिए कि इस्लाम की शिक्षा में, विशुद्ध एकेश्वरवाद (तौहीद, Monotheism) के सिवा बहु-ईश्वरवाद या बहुदेववाद (Polytheism)……अथवा त्रि-ईश्वरवाद (Trinity) की भी कोई गुंजाइश है। यह ‘ईश्वरत्व में साझेदारी’ (शिर्क), इस्लाम की मूलधारणा ‘तौहीद’ (विशुद्ध एकेश्वरवाद) के बिल्कुल विपरीत है और क़ुरआन में इसे घोर अत्याचार—बहुत ही बड़ा जु़ल्मद—कहा गया है।(31:13)■ (ऐ मुहम्मद) कह दो, ‘‘ऐ लोगो, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की ओर से ‘सत्य’ आ चुका है। अब जो सीधा मार्ग अपनाए उसका, सीधा मार्ग ग्रहण करना उसी के लिए लाभदायक है और जो (यह सीधा मार्ग न अपना कर) गुमराह रहे उसकी गुमराही उसी के लिए विनाशकारी है। और मैं तुम्हारे ऊपर कोई हवालेदार नही हूँ।1  (10:108)
(1. इस्लाम का मूल-सिद्धांत और मुसलमानों की सुनिश्चित नीति यही है कि सत्य धर्म ‘इस्लाम’ का प्रचार-प्रसार किया जाए। इसे स्वीकार करना या अस्वीकार कर देना दूसरों की मरज़ी पर छोड़ दिया जाए। ज़ोर-ज़बरदस्ती और बलात् धर्म-परिवर्तन की न आवश्यकता है, न औचित्य।)
■ ऐ लोगो, अपने रब से डरो (और उसके ग़ज़ब व प्रकोप से बचो), वास्तविकता यह है कि क़ियामत का ज़लज़ला (प्रलय का भूकम्प) बड़ी (भयंकर) चीज़ (घटना) है। जिस दिन तुम (अर्थात् उस समय के मनुष्य) उसे देखोगे, हाल यह होगा कि हर दूध पिलाने वाली अपने दूध पीते बच्चे को भूल जाएगी, हर गर्भवती का गर्भ गिर जाएगा और लोग तुम्हें ऐसे दिखेंगे जैसे कि नशे में हों, जबकि वे नशे में न होंगे बल्कि अल्लाह का अज़ाब ही कुछ ऐसा कठोर होगा। (22:1-2)
■ ऐ लोगो, अगर तुम्हें मौत के बाद की ज़िन्दगी (पुनरुज्जीवन) के बारे में कुछ शक है तो तुम्हें मालूम हो कि हम ने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया है,1 फिर वीर्य से, फिर ख़ून के लोथड़े से, फिर मांस की बोटी से, जो शक्ल वाली भी होती है और बेशक्ल भी। (यह हम इसलिए बात रहे हैं) ताकि तुम पर सच्चाई को स्पष्ट कर दें। हम जिस (वीर्य) को चाहते हैं एक नियत समय तक गर्भाशय में ठहराए रखते हैं, फिर तुमको एक बच्चे के रूप में निकाल लाते हैं (फिर तुम्हारा पालन-पोषण करते हैं) ताकि तुम अपनी जवानी (युवावस्था) को पहुँचो। और तुम में से कोई पहले ही वापस बुला लिया जाता है और कोई निकृष्टतम आयु की ओर फेर दिया जाता है ताकि सब कुछ जानने के बाद फिर कुछ जानकारी न रह जाए।2 और तुम देखते हो3 कि ज़मीन सूखी पड़ी है4, फिर जहाँ हम ने उस पर पानी बरसाया कि यकायक वह फबक उठी और फूल गई और उसने हर तरह की सदृश्य बनस्पतियाँ उगलनी शुरू कर दीं। यह सब कुछ इसलिए (प्रमाणस्वरूप बताया जा रहा) है कि अल्लाह ही सत्य है और वह मुरदों को ज़िन्दा करता है और उसे हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्त है। और (यह इस बात का प्रमाण है कि) क़ियामत की घड़ी आकर रहेगी, इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं, और अल्लाह ज़रूर उन लोगों को (पुनरुज्जीवित करके) उठाएगा जो क़बरों में जा चुके हैं। (22:5-6)
(1. प्रथम मानव, हज़रत आदम (अलैहि॰) को मिट्टी के गारे से पैदा किया, उनकी पत्नी......हज़रत हव्वा (अलैहि॰) को चमत्कारिक रूप से पैदा किया। फिर आगे की मानव-संरचना पुरुष-नारी के यौन-मिलाप की सामान्य प्रक्रिया के अन्तर्गत होती रहने का शास्वत नियम बना दिया जिसमें उस ‘वीर्य’ को प्राथमिक स्थान प्राप्त है जिसके सारे तत्व (आहार व जल के माध्यम से) मानव-शरीर में मिट्टी से ही पहुँचते और उसमें रहकर प्रजनन-गुण के धारक बनते हैं।
2. अर्थात् बुढ़ापे की उम्र का वह चरण जब आदमी की याद्दाश्त बहुत कमज़ोर हो जाती है और भूलने बहुत लगता है।
3. यहाँ से एक उदाहरण शुरू होता है जिसके द्वारा यह समझाया जा रहा है कि बज़ाहिर कुछ चीज़ें बिल्कुल जीवन-रहित हो जाती हैं लेकिन अल्लाह के सामर्थ्य और क्षमता से उनमें फिर से ज़िन्दगी फूट पड़ती है। यह एक निशानी और प्रमाण है कि अल्लाह जब चाहे मृत को पुनरुज्जीवन प्रदान कर सकता है अतः परलोक के लिए मनुष्यों को पुनः जीवित कर देना उसके लिए असंभव कौन कहे, ज़रा-सा मुश्किल भी नहीं है।
4. अर्थात् मुर्दा-समान है।
5. और उन्हें भी जो क़बरों में दफ़न नहीं हैं बल्कि उनके पार्थिव शरीर जलकर राख हो गए, या छिन्न-भिन्न हो गए या उन्हें किसी पशु-पक्षी ने खा लिया, क्येंकि शरीर के समस्त भौतिक तत्व उसी धरती, वातावरण, वायुमण्डल में तो विद्यमान हैं जो ईश्वर के सामर्थ्य व सत्ता के अंतर्गत है।)
■ (ऐ नबी) कह दो, ‘‘ऐ लोगो, मैं तुम्हारे लिए सिर्फ़ वह व्यक्ति हूँ जो (कठिन घड़ी, अर्थात् प्रलय आने से पहले) साफ़-साफ़ सावधान करने वाला (चेतावनी देने वाला) हो।’’ फिर जो ईमान लाएँगे, और उसी ईमान के अनुकूल काम करेंगे उनके लिए (परलोक में) माफ़ी है और सम्मानपूर्ण आजीविका, और जो हमारी आयतों को नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे1 वे दोज़ख़ (नरक) के यार हैं।  (22:49-51)
(1. अर्थात् इन्कार करने, उपहास करने, ग़लत व झूठा सिद्ध करने और मानव-कृत साबित करने की कोशिश।)■ ऐ लोगो, एक मिसाल दी जाती है, ध्यान से सुनो। जिन पूज्यों को तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो वे सब मिलकर एक मक्खी भी पैदा करना चाहें तो नहीं कर सकते बल्कि मक्खी उनसे कोई चीज़ छीन ले जाए तो वे उसे छुड़ा भी नहीं सकते। मदद चाहने वाले भी कमज़ोर और जिनसे मदद चाही जाती है वे भी कमज़ोर।  (22:73)
■ ऐ लोगो, बचो अपने रब के प्रकोप से और डरो उस दिन1 से जब कोई बाप अपने बेटे की ओर से बदला न देगा और न कोई बेटा ही अपने बाप की ओर से कुछ बदला देने वाला होगा। निश्चय ही अल्लाह का वादा2 सच्चा है। अतः यह दुनिया की ज़िन्दगी तुम्हें धोखे में न डाले3। और न धोखेबाज़ तुम्हें अल्लाह के बारे में धोखा देने पाए।4  (31:33)
(1. परलोक में तमाम इन्सानों के इकट्ठा किए जाने का दिन जब हर एक को उसका कर्म-पत्र दिया जाएगा, अच्छे कामों और बुरे कामों को बदले में स्वर्ग या नरक का फ़ैसला सुनाया जाएगा। उस दिन सब को अपनी-अपनी पड़ी होगी, रिश्ते एक-दूसरे के काम न आएंगे।(80:34-37)
2. अर्थात् क़ियामत और परलोक का वादा।
3. कि जो कुछ है यहीं का जीवन है अतः खाओ, पियो, मौज-मस्ती करो (Eat, Drink and BeMerry)।
4. अर्थात् उनसे सचेत रहो जो जीवन की वास्तविकता के बारे में भ्रम और धोखे में डालते हैं।)
■ ऐ लोगो, तुम पर अल्लाह के जो उपकार हैं उन्हें याद रखो। क्या अल्लाह के अलावा भी कोई और स्रष्टा है जो तुम्हें आसमान और ज़मीन से रोज़ी (आजीविका) देता हो? कोई उपास्य उसके सिवा नहीं, आख़िर तुम कहाँ से धोखा खा रहे हो?  (35:3)
■ ऐ लोगो, अल्लाह का वादा यक़िनन सच्चा है, अतः दुनिया की ज़िन्दगी तुम्हें धोखे में न डाले और न वह बड़ा धोखेबाज़1 तुम्हें अल्लाह के बारे में धोखा देने पाए। वास्तव में शैतान तुम्हारा दुश्मन है2 इसलिए तुम भी उसे अपना दुश्मन ही समझो। वह तो अपने अनुयायियों को अपनी राह पर इसलिए बुला रहा है कि वे नरक में जाने वालों में शामिल हो जाएँ।  (35:5,6)
(1. अर्थात् शैतान
2. क़ुरआनी विवरण के लिए देखेंद—2:168, 208, 6:142, 7:22, 12:5, 28:15, 35:6, 36:60, 43:62, 170:53)
■ ऐ लोगो, तुम ही अल्लाह के मुहताज हो और अल्लाह तो निराश्रित, सम्पन्न और प्रशंसय है। वह चाहे तो तुम्हें हटाकर कोई नई सृष्टि तुम्हारी जगह ले आए, ऐसा करना अल्लाह के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। कोई बोझ उठाने वाला1 किसी दूसरे का बोझ न उठाएगा। और अगर कोई (बोझ से) लदा हुआ प्राणी अपना बोझ उठाने के लिए पुकारेगा तो उसके बोझ का एक छोटा-सा हिस्सा भी बटाने के लिए कोई न आएगा चाहे वह बहुत ही निकट-संबंधी ही क्यों न हो।...  (35:15-18)
(1. अर्थात् परलोक में हिसाब-किताब के दिन, दुनिया की ज़िन्दगी के बुरे कामों का बोझ जिस पर होगा, ऐसा व्यक्ति।)■ ऐ लोगो, हम ने तुम को एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और फिर तुम्हारी क़ौमें और बिरादरियाँ बना दीं ताकि तुम एक-दूसरे की पहचान कर सको। वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित वह है जो तुममें सबसे ज़्यादा परहेज़गार है।1 यक़िनन अल्लाह सर्वज्ञानी और बाख़बर है। (19:13)     
(1. यहाँ उस सबसे बड़ी बुराई का सुधार किया गया है जो दुनिया में हमेशा सार्वभौमिक बिगाड़ का कारण बनी रही है, अर्थात् नस्ल, रंग, भाषा, देश और जातीयता (क़ौमियत) सम्बन्धित पक्षपात। यहां अल्लाह ने सारे इन्सानों को संबोधित करके तीन अत्यंत महत्वपूर्ण मौलिक तथ्यों का उल्लेख किया है। एक : तुम सब का मूल एक ही है। एक ही मर्द (आदम) और एक ही औरत (हव्वा) से पूरी मानवजाति का अविर्भाव हुआ है। दूसरे : अपने मूल की दृष्टि से एक होने के बावजूद तुम्हारा क़ौमों और क़बीलों में विभक्त हो जाना एक स्वाभाविक बात थी, इससे तुम एक-दूसरे में पहचान कर लेते हो। मगर इस अन्तर और विभेद का यह तक़ाज़ा हरगिज़ न था कि इसके आधार पर ऊंच-नीच, भद्र और अभद्र, श्रेष्ठ और क्षुद्र की सीमाएँ खींची जाएँ। स्रष्टा ने जिस कारण इन्सानी समुदायों को क़ौमों और क़बीलों का रूप दिया था वह सिर्फ़ यह था कि उनके बीच पारस्परिक सहयोग और परिचय का स्वाभाविक रूप यही था। तीसरे : इन्सान और इन्सान के बीच श्रेष्ठता और उच्चता का आधार केवल नैतिक श्रेष्ठता हो सकती है अर्थात ईश-भय, ईशपरायणता, नेकी, तथा अल्लाह की नाफ़रमानी से बचना (परहेज़गारी)। यही बात इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने अन्तिम हज के अवसर अपने ऐतिहासिक भाषण में यूँ कही थी : ...लोगो सुनो! तुम्हारा रब एक है, तुम्हारा बाप एक है। तुम सब आदम की संतान हो और आदम मिट्टी से बने थे। तुममें अल्लाह के निकट प्रतिष्ठित वह है जो ज़्यादा परहेज़गार है। किसी अरबी को ग़ैर-अरब पर किसी गोरे को किसी काले पर, किसी काले को किसी गोरे पर परहेज़गारी (ईशपरायणता) के सिवाय कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है...।’’
ऐ आदम की सन्तान...
■ ऐ आदम की सन्तान, हम ने तुम पर वस्त्र उतारा है कि तुम्हारे शरीर के गुहा अंगों को ढाँके और तुम्हारे लिए शरीर की रक्षा और सौंदर्य का साधन भी हो, और बेहतरीन वस्त्र परहेज़गारी (बुराइयों से और अल्लाह की नाफ़रमानी के कामों और बातों से बचने) का वस्त्र1 है। यह अल्लाह की निशानियों में से एक निशानी है ताकि लोग इससे शिक्षा ग्रहण करें...।  (7:26)
(1. गुप्त अंगों को ढाँकना वस्त्र पहनने का मूल ध्येय है। इस्लाम के अनुसार पुरुष के नाभि से नीचे जांघों तक और नारी के चेहरे और हथेलियों को छोड़कर पूरा शरीर ढाँके जाने के संदर्भ में ‘‘गुप्त अंग’’ की परिभाषा (‘सतर’) के अंतर्गत आता है। यदि इन्सान तक़वा (परहेज़गारी) के वस्त्र से महरूम या विमुक्त व विमुख हो जाए तो शारीरिक वस्त्र कम करता चला जाता है, विशेषतः स्त्रिायाँ, और फिर अथाह व अनंत नैतिक व चारित्रिक बुराइयाँ व्यक्ति में पनपने और समाज में फैलने लगती है। इसीलिए यहाँ बताया गया कि बेहतरीन वस्त्रा ‘परहेज़गारी का वस्त्र’ है।)■ ऐ आदम की सन्तान, ऐसा न हो कि शैतान तुम्हें फिर उसी तरह प्रलोभन-परीक्षा (फ़ितना) में डाल दे जिस तरह उसने तुम्हारे माँ-बाप (आदम व हव्वा) को जन्नत से निकलवाया था और उनके वस्त्र उन पर से उतरवा दिए थे, ताकि उनके गुप्त अंग एक-दूसरे के सामने खोले।1  (7:27)
(1. विवरण के लिए देखिए क़ुरआन...7:26 पूरी आयत का अर्थ।
आज के युग में शैतान मर्दों और विशेषतः औरतों को आधुनिकता, उन्नति, सम्पन्नता आदि का प्रलोभन देकर उनके शरीर पर से उनके वस्त्र उतरवा रहा है। नाइट क्लब कल्चर, फैशन शो कल्चर, राष्ट्र-सुन्दरी व विश्व सुन्दरी कल्चर और अश्लीलता व नग्नतापूर्ण विज्ञापन कल्चर का बढ़ता-चढ़ता रिवाज इसी शैतानी प्रलोभन-परीक्षा का एक सर्वव्यापी रूप है।)■ ऐ आदम की सन्तान, हर इबादत के अवसर पर अपनी सज्जा से सुशोभित रहो और खाओ-पियो और सीमा से आगे न बढ़ो, अल्लाह सीमा से बढ़ने वालों को पसन्द नहीं करता।
ऐ नबी, इनसे कहो किसने अल्लाह की उस सज्जा को हराम कर दिया है जिसे अल्लाह ने अपने बन्दों के लिए निकाला था और किसने अल्लाह की प्रदान की हुई पाक चीज़ें हराम कर दीं?
1 (7:31-32)
(1. अल्लाह की इबादत की ग़लत परिकल्पना और चरम पंथ (Extremism) पर आधारित कुछ धर्मों के अनुयायियों में रिवाज यह था कि वे गन्दे रहते, नहाना-धोना और स्वच्छ वस्त्र पहनना छोड़ देते, नंगे रहते या केवल लंगोटी बाँधे रहते, बुरी तरह बाल बढ़ाए रहते, आदि। इसी प्रकार ठीक से भोजन न करते, कुछ खा-पीकर बस ज़िन्दा रहते और अल्लाह की दी हुई खाद्य-सामग्रियों व पेय-पदार्थों को अपने लिए हराम (त्याज्य) कर लेते। यहाँ अल्लाह ने इस अस्वाभाविकता और चरम-पंथ से मना किया और स्वाभाविक व संतुलित रवैया अपनाने का आदेश दिया है।)■  (और यह बात अल्लाह ने सृष्टि के आरंभ में ही, आदम की संतान की आत्माओं से कह दी थी कि) ऐ आदम की सन्तान, याद रखो जब तुम ही में से ऐसे रसूल आएँ जो तुम्हें मेरी आयतें सुना रहे हों तो जो कोई नाफ़रमानी से बचेगा और अपने रवैये (व्यवहार व चाल-चलन, का सुधार कर लेगा उसके लिए किसी डर और चिंता का कोई अवसर नहीं है।                               (7:35)
■  और (ऐ नबी, लोगों को याद दिलाओ वह समय) जब तुम्हारे रब ने आदम की सन्तान की पीठों से उनकी नस्ल को निकाला था और उन्हें स्वयं उन्हीं पर गवाह बनाते हुए पूछा था, ‘‘क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूं?’’ उन्होंने कहा, ‘‘ज़रूर आप ही हमारे रब हैं, हम इस पर गवाही देते हैं।’’1 यह हम ने इसलिए किया कि कहीं तुम क़ियामत के दिन यह न कहने लगो कि ‘‘हम तो इस बात से बेख़बर थे’’2, या यह न कहने लगो कि ‘‘शिर्क (बहुदेव-पूजा) का आरंभ तो हमारे बाप-दादा ने हम से पहले किया था और हम उसके पश्चात् उनकी नस्ल से पैदा हुए फिर क्या आप हमें उस अपराध में पकड़ते हैं जो दोषी लोगों ने किया था?’’ देखो, इस तरह हम बातें स्पष्ट करके पेश करते हैं और इसलिए करते हैं कि ये लोग (शिर्क को त्याग कर मेरी ओर) पलट आएँ।
  (7:172-174)
(1. यह इहलौकिक घटना और ऐतिहासिक वार्ता नहीं है, अतः ईश-प्रकाशना के तहत) हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने इसकी व्याख्या की। यह व्याख्या इस्लाम के द्वितीय श्रेणी के मूल ग्रंथ...‘‘हदीस’’...अर्थात् आप (सल्ल॰) के प्रवचन का कथन-संग्रह में, जो कि पूर्ण विश्वसनीय है, इस तरह आई है कि आदम को बनाने के बाद, अल्लाह ने आदम की पूरी भावी नस्ल की आत्माओं को एक ही समय पर अपने सामने उपस्थित किया था (और यह काम उसके लिए कुछ भी कठिन या असंभव हरगिज़ न था), और उनसे, अपने रब होने की गवाही ली थी।
2. यद्यपि यह घटना इहलौकिक नहीं है, फिर भी इसी का प्रभाव व परिणाम है कि कोई भी मानव-प्राणी इस तथ्य से बेख़बर नहीं है कि उसका एक स्रष्टा व रब (पालनहार) है, जो अल्लाह (प्रभु, ईश्वर, God) के सिवा और कोई नहीं है। इहलौकिक जीवन में हर मनुष्य की चेतना (या अन्तःकरण) में ‘‘अल्लाह के रब होने’’ का आभास मौजूद है। अल्लाह ने संसार में आदिकाल से ही अपने दूतों (नबियों, रसूलों) को नियुक्त करने और उन पर अपनी वाणी अवतरित करने का जो प्रयोजन किया उसका मूल उद्देश्य यही रहा है कि आदम की संतान को उसकी वह गवाही याद दिखाई जाए। उसके चेतना-पटल पर ‘अल्लाह के रब होने’ की अवधारणा, विश्वास और ईमान व यक़ीन की रूप-रेखा उभारी जाए तथा उसे शिर्क से रोका जाए।)
■  हम ने आदम की सन्तान को श्रेष्ठता प्रदान की1 और उन्हें ख़ुशकी (ज़मीन) और तरी (समुद्र) में सवारियाँ प्रदान कीं2 और उनको पाक चीज़ों से रोज़ी दी और अपने बहुत से पैदा किए हुओं पर स्पष्ट श्रेष्ठता प्रदान की।3 (17:70)
(1. बुद्धि, विवेक, चेतना, आध्यात्मिकता, सभ्यता, नैतिकता, बन्दगी और नेकी आदि की श्रेष्ठता।)
2. ज़मीन और नदियों व समुद्रों पर चलने वाली सवारियों को इन्सान बनाता है, लेकिन यहाँ अल्लाह कहता है कि इन्हें हमने प्रदान किया है। तात्पर्य यह है कि इनमें काम आने वाली सामग्री, सवारी बनाने की बुद्धि, तकनीक की कुशलता और उपयोग व उपभोग की क्षमता, सब कुछ ईश-प्रदत्त (God Gifted) है। साथ ही अनेक पशुओं (जैसे ऊँट, घोड़ा, गधा, बैल, भैंस, हाथी...और टुण्ड्रा में एस्कीमों का कुत्ता आदि) को सवारी के लिए इन्सान के अनुकूल और उसके वश में अल्लाह ही ने बनाया है।
3. धरती और समुद्रों में जितने भी जीवधारी हैं, मनुष्य शरीर, मस्तिष्क, और आध्यात्म के हर पहलू से, और क्षमता व सामर्थ्य के पहलू से भी उन सबसे श्रेष्ठ है। क़ुरआन में अल्लाह ने एक जगह फ़रमाया, ‘‘हम ने इन्सान को सर्वोत्तम संरचना के साथ बनाया।’’ (95:4)
■  ऐ आदम की सन्तान, क्या मैंने तुम्हें आदेश न दिया था कि शैतान की बन्दगी न करना, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।1 और मेरी ही बन्दगी करना, यही सीधा मार्ग है? मगर फिर भी तुममें से एक बड़े गिरोह को उस (शैतान) ने पथ-भ्रष्ट कर दिया। क्या तुम बुद्धि नहीं रखते थे?  (36:60-62)
(1. देखें—क़ुरआन 2:168,208, 6:142, 7:22, 12:5, 28:15, 35:6, 36:60, 43:62, 170:53) 
ऐ इन्सान...
■ ऐ इन्सान, किस चीज़ ने तुझे अपने उस उदार रब के प्रति धोखे में डाल दिया जिसने तुझे पैदा किया, तुझे नख-शिख से दुरुस्त किया, तुझे सन्तुलित बनाया, और जिस रूप में चाहा, तुझे जोड़ कर तैयार किया? हरगिज़ नहीं1 बल्कि (वास्तविक बात यह है कि) तुम लोगो (‘पुरस्कार’ या ‘यातना’ के रूप में परलोक में मिलने वाले) बदला को झुठलाते हो,2 हालाँकि तुम पर (हर क्षण) निगरानी करने वाले (फ़रिश्ते) नियुक्त हैं,3 ऐसे प्रतिष्ठावान लिपिक जो तुम्हारे हर कर्म को जानते हैं।  (82:12)
(1. अर्थात्, नहीं! कोई बुद्धिसंगत कारण इस धोखे में पड़ने का, बिल्कुल नहीं है।
2. अर्थात्, वास्तव में जिस बात ने तुम लोगों को धोखे में डाला है वह कोई बुद्धिसंगत तर्क व प्रमाण नहीं है, बल्कि सिर्फ़ तुम्हारा यह मूर्खतापूर्ण विचार है कि दुनिया के इस कर्मक्षेत्र के बाद, बदला पाने का कोई स्थल नहीं है। इसी ग़लत और निराधार गुमान ने तुम्हें अल्लाह से ग़ाफ़िल, उसके न्याय से निर्भय व निश्चिंत, तथा अपने नैतिक व्यवहार व नीति में ग़ैर-ज़िम्मेदार बना दिया है।
3. जो इन्सान के हर छोटे-बड़े अच्छे या बुरे काम को रिकार्ड करते रहते हैं चाहे वह अँधेरे में किया गया हो या उजाले में, चाहे एकांत में किया गया हो, चाहे किसी की उपस्थिति में। इसी रिकार्ड (कर्मपत्र) को आख़िरत में देखकर इन्सान भौचक्का रह जाएगा और जो कुछ कहेगा क़ुरआन उसे बयान करता है। (18:49)
इस रिकार्ड के बारे में भी क़ुरआन बयान करता है—(50:18, 8:49, 13:10)।)
■ (प्रलय अर्थात् क़ियामत के दिन) जब ज़मीन फैला दी जाएगी1 और जो कुछ उसके भीतर है उसे बाहर फेंक कर ख़ाली हो जाएगी5 और अपने रब के आदेश का पालन करेगी और उसके लिए हक़ यही है (कि उसका पालन करे)। ऐ इन्सान, तू ज़बरदस्ती खिंचते हुए अपने रब की ओर चला जा रहा है और उससे मिलने वाला है।  (84:3-6)
1. अर्थात्, समुद्र और दरिया पाट दिए जाएँगे, पहाड़ चूर्ण-विचूर्ण करके बिखेर दिए जाएँगे (70:9, 73:14, 101:5) और ज़मीन की सारी ऊँच-नीच बराबर करके एक समतल मैदान बना दिया जाएगा। (यह काम अल्लाह के लिए कुछ भी मुश्किल न होगा। वह तो बस यह कहता है ‘हो जा’ और वह काम हो जाता है। (16:40, 19:35, 36:82)
2. अर्थात् जितने मरे हुए इन्सान किसी भी रूप में उसके अन्दर समाहित होंगे सबको वह बाहर निकाल डालेगी और इसी तरह उनके कर्मों के जो प्रमाण किसी भी रूप में उसके अन्दर मौजूद होंगे उन्हें भी। कोई चीज़ भी उसमें छिपी और दबी न रह जाएगी।)

■ इन्सान का हाल यह है कि जब हम उसे अपनी दयालुता व कृपा का मज़ा देते हैं तो उस पर फूल जाता है1 और अगर उसके अपने हाथों का किया धरा किसी मुसीबत के रूप में उस पर उलट पड़ता है तो वह बड़ा कृतघ्न और नाशुक्रा बन जाता है।  (42:48)
(1. अर्थात् ईश्वर का कृतज्ञ व आभारी, शुक्रगुज़ार बनने के बजाय घमंड एवं अहंकार से फूलने ऐंठने और शेख़ी बघारने लगता है और कहता है कि यह उपलब्धि तो मेरे अपने सामर्थ्य गुण, मेहनत, कुशलता, निपुणता, क्षमता और शक्ति का परिणाम है (ईश्वर की इसमें क्या भूमिका?)।)
■ हम ने इन्सान को ताकीद की कि वह अपने माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करे। उसकी माँ ने कष्ट उठाकर उसे पेट में रखा और कष्ट उठाकर ही उसे जन्म दिया, और उसके गर्भ धारण तथा दूध छुड़ाने में तीस माह लग गए।...       (46:15)
■ अत्यंत मेहरबान (अल्लाह) ने क़ुरआन की शिक्षा दी। उसी ने इन्सान को पैदा किया और उसे बोलना सिखाया।  (55:1-4)
■ क्या इन्सान यह समझ रहा है कि हम उसकी हड्डियों को एकत्र न कर सकेंगे1? क्यों नहीं? हम तो उसकी उंगलियों की पोर-पोर तक को ठीक बना देने का सामर्थ्य रखते हैं।2  (75:3-4)
(1. क़ुरआनके अवतरण-काल में जब आख़िरत के पुनरुज्जीवन का आह्नान किया जाता तो इन्कार करने वाले यह कहते (और आज भी यही कहते हैं) कि शरीर का मांस तो मांस है, हड्डियाँ भी सड़-गलकर समाप्त हो जाएँगी तब भला यह कैसे संभव होगा कि हम फिर से जीवित कर दिए जाएँगे।
2. अर्थात् हमारे सामर्थ्य में है कि हड्डिों को मात्र एकत्र ही न करें बल्कि एक-एक जोड़ और और उँगलियों का पोर-पोर भी पुनः पहले ही की तरह बना दें (और हम ऐसा ही करके रहेंगे। जो लोग ईश्वर को सर्व-सक्षम (Omnipotent) मानते और देखते हैं, उनके पास अल्लाह की इस क्षमता व सामर्थ्य में शक या इन्कार की कोई गुंजाइश नहीं है, हाँ हठधर्मी की बात और है, लेकिन बुद्धि-विवेक रखने वाले मनुष्य को हठधर्म नहीं होना चाहिए।)
■ (इन्सान) पूछता है, ‘‘आख़िर कब आना है वह क़ियामत का दिन?’’3 तो (इन्सान को मालूम हो कि) जब (वह दिन आएगा तब) दीदे पथरा जाएँगे और चाँद प्रकाशहीन हो जाएगा और चाँद-सूरज मिलाकर एक कर दिए जाएँगे उस समय यही इन्सान कहेगा, ‘‘कहाँ भाग कर जाऊँ?’’ हरगिज़ नहीं (भागने की, और) पनाह व शरण लेने की कोई जगह न होगी, उस दिन तेरे रब ही के सामने जाकर ठहरना होगा। उस दिन इन्सान को उसका सब अगला-पिछला किया-कराया बता दिया जाएगा।  (75:6-13)
(1. ज्ञान और जानकारी के लिए यह प्रश्न नहीं करता है बल्कि इन्कार और व्यंग के तौर पर।)■ क्या इन्सान ने यह समझ रखा है कि वह यूँ ही आज़ाद छोड़ दिया जाएगा1? क्या वह एक तुच्छ पानी का वीर्य न था जो (माँ के गर्भाशय में) टपकाया जाता है? फिर वह एक लोथड़ा बना, फिर अल्लाह ने उसका शरीर बनाया और उसके अंग ठीक किए, फिर उससे मर्द और औरत की दो क़िस्मे बनाईं। क्या उस (अल्लाह) को इसका सामर्थ्य नहीं है कि मरने वालों को फिर से ज़िन्दा कर दे।   (75:36)
(1. अर्थात् उसे, इस जीवन के कर्मों का लेखा-जोखा देने के लिए उत्तरदायी बनाकर, इस जीवन के बाद पकड़ा न जाएगा? यह तो सामान्य बुद्धि और साधारण तर्क का तथा इन्सान का तक़ाज़ा है—और न्याय व इन्साफ़ का तक़ाज़ा, अल्लाह से बेहतर और कौन पूरा कर सकता है—कि हर पापी, दुष्कर्मी, अत्याचारी को आज़ाद न छोड़ दिया जाए बल्कि उसे पकड़ा जाए और अनुकूल सज़ा दी जाए, और नेक, ईमानदार, सत्कर्मी व ईशपरायण लोगों को यथार्थ पुरस्कार व इनाम से नवाज़ा जाए। परलोक में जहन्नम (नर्क) और जन्नत (स्वर्ग) का ईश्वरीय वादा इसीलिए है।)
■ फिटकार हो (उस) इन्सान पर जो ‘सत्य’ का इन्कार करने वाला है। किस चीज़ से अल्लाह ने उसे पैदा किया? वीर्य की एक बूँद से अल्लाह ने उसे पैदा किया फिर उसका भाग्य नियत किया, फिर उसके लिए जीवन-पथ आसान किया, फिर उसे मौत दी और क़ब्र में पहुँचाया। फिर वह जब चाहे उसे दोबारा उठा खड़ा करे।  (80:17-22)
http://www.islamdharma.org/article.aspx?ptype=A&menuid=27

क़ुरआन की शिक्षाएं
क़ुरआन की आयतों का सार
मानव-जीवन के बहुत से पहलू हैं, जैसे : आध्यात्मिक, नैतिक, भौतिक, सांसारिक आदि। इसी तरह उसके क्षेत्र भी अनेक हैं, जैसे: व्यक्तिगत, दाम्पत्य, पारिवारिक, सामाजिक, सामूहिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि। क़ुरआन, मनुष्य के सम्पूर्ण तथा बहुपक्षीय मार्गदर्शक ईश-ग्रंथ के रूप में इन्सानों और इन्सानी समाज को शिक्षाएं देता है। इनमें से कुछ, यहां प्रस्तुत की जा रही हैं:
● एकेश्वरवाद से संबंधित शिक्षाएं तथा शिर्क का नकार
● परलोक जीवन से संबंधित शिक्षाएं
● सामाजिक शिष्टाचार से संबंधित शिक्षाएं
● माता-पिता से संबंधित शिक्षाएं
● अनाथों से संबंधित शिक्षाएं
● निर्धनों से संबंधित शिक्षाएं
● नैतिकता से संबंधित शिक्षाएं
● नैतिक बुराइयों के वास्तविक कारण
● ज्ञान-विज्ञान
● संतान से संबंधित शिक्षाएं
एकेश्वरवाद से संबंधित शिक्षाएं एवं शिर्क का नकार1. अल्लाह यकता है (उसमें किसी प्रकार की अनेकता नहीं है)। वह किसी का मुहताज नहीं, सब उसके मुहताज हैं। न उसकी कोई संतान है न वह किसी की संतान है; और वह बेमिसाल, बेजोड़ है, कोई उसका समकक्ष नहीं है। (सार-112:1-4)
2. अल्लाह ही हरेक का रब है अतः उसी की बन्दगी (दासता) अपनाओ, यही सीधा मार्ग है। (सार-3:51)
3. जो लोग (ईशग्रंथ में) अपनी ओर से गढ़कर झूठी बातें अल्लाह से जोड़ते रहे वे वास्तव में अत्याचारी हैं। (सार-3:94)
4. तारे...,..., चांद, सूरज आदि, जिसके पक्ष में ईश्वर ने कोई प्रमाण अवतरित नहीं किया है, ईश्वर के ईश्वरत्व में साझीदार नहीं हैं क्योंकि ज़मीन और आसमानों की रचना तो ईश्वर ने की है। (सारांश-6:76-81)
5. अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा कोई तुम्हारा उपास्य नहीं है। (सार-7:59, 7:65, 7:73, 7:85, 11:61, 11:84)
6. बहुत सारे भिन्न-भिन्न प्रभुओं के बजाय वह एक अल्लाह बेहतर है जिसे सब पर प्रभुत्व प्राप्त है। (सार, 12:39)
7. अल्लाह को छोड़कर जिनकी बन्दगी की जा रही है वे कुछ नाम हैं जिन्हें लोगों के पूर्वजों न रख लिए थे...शासन-सत्ता अल्लाह के सिवाय किसी के लिए नहीं है। उसके आदेशानुसार, उसके सिवाय किसी की बन्दगी न करो, यही बिल्कुल सीधी जीवन-प्रणाली है। (सार, 12:40)
8. उन चीज़ों की उपासना आख़िर क्यों, जो न सुनती हैं, न देखती हैं न किसी का कोई काम बना सकती हैं। (सार, 19:42)
9. मैं ही अल्लाह हूं, मेरे सिवाय कोई पूज्य नहीं अतः मेरी ही बन्दगी करो। (सार, 20:14)
10. लोगो, तुम्हारा पूज्य तो बस एक अल्लाह ही है जिसके सिवाय कोई और पूज्य नहीं है। हर चीज़ पर उसका ज्ञान हावी है। (20:98)
11. अल्लाह बस शिर्क (अपना कोई साझीदार बनाए जाने) को माफ़ नहीं करता...जिसने किसी को अल्लाह का साझीदार ठहराया उसने बहुत बड़ा झूठ रचा और घोर पाप किया। (सारांश, 4:48)
12. जिसने अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराया उस पर अल्लाह ने स्वर्ग को हराम कर दिया, उसका ठिकाना नरक है...। (सार, 5:72)
13. अल्लाह के सिवाय दूसरों को पूज्य बनाने का क्या औचित्य है जबकि इसका प्रमाण ईश-ग्रंथों (क़ुरआन सहित) में नहीं है। (सार, 21:27)
14. (पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰ से) पहले के ईशदूतों द्वारा भी अल्लाह ने यही शिक्षा अवतरित की थी कि उसके सिवाय कोई और पूज्य नहीं है अतः लोग उसी की बन्दगी करें। (सार, 21:25)
15. अल्लाह को छोड़कर उन चीज़ों को पूजना उचित कैसे हो सकता है जो न कोई फ़ायदा पहुंचा सकती हैं, न नुक़सान। (सार, 21:66)
16. अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवाय तुम्हारे लिए कोई पूज्य नहीं है। क्या तुम (ऐसे अनुचित कृत्य से) बचते नहीं हो? (सार, 23:32)
17. ऐसी मूर्तियों की पूजा भला क्या करनी जो न किसी की पुकार-प्रार्थना सुन सकती हों, न कोई लाभ-हानि पहुंचा सकती हों; सिर्फ़ इसलिए कि बाप-दादा ऐसा ही करते आए हैं? अस्ल में पूरे संसार का प्रभु तो वह (ईश्वर) है जो इन्सान को पैदा करता, मार्गदर्शन करता, खिलाता-पिलाता, बीमार हो जाने पर, स्वास्थ्य देता, और मौत देता है और फिर दोबारा (पारलौकिक) जीवन वही प्रदान करेगा। (सार, 26:72-81) अल्लाह ईश्वर के अलावा जिनकी भी पूजा की जाती है वे रोज़ी (आजीविका) देने का सामर्थ्य नहीं रखते। उसी से रोज़ी मांगो, उसी की बन्दगी करो, उसी के कृतज्ञ बनकर रहो। (मृत्यु पश्चात्) उसी की ओर पलटकर (परलोक में) जाने वाले हो। (सार, 29:17)
18. कोई बड़ी मुसीबत पड़ने पर या ज़िन्दगी की आख़िरी घड़ी आ जाने पर ज़रा सच-सच बताओ कि क्या तुम अल्लाह के साथ ठहराए हुए सीझीदारों से प्रार्थना करने के बजाय उन्हें भूलकर सिर्फ़ अल्लाह (ईश्वर) को ही नहीं पुकारते? (उसी से प्रार्थना नहीं करते?) (सार, 6:40,41)
19. समुद्री तूफ़ान में घिर जाने पर तुम एकाग्रचित होकर, अल्लाह से ही, बचाने की प्रार्थनाएं करते हो, और जब वह तुम्हें बचा लेता है तो फिर असत्य रूप से धर्ती पर (ईश्वर के प्रति ही) विद्रोहात्मक नीति धारण कर लेते हो। लोगो यह दुनिया की ज़िन्दगी के थोडे़ दिन के मज़े हैं, तुम्हारा यह विद्रोह तुम्हारे ही विरुद्ध पड़ रहा है, तुम्हें पलटकर अल्लाह ही के पास जाना है। (सार, 10:22,23, 17:67, 31:32)
20. वही ईश्वर ही तो है जिसने तुम्हारे लिए धर्ती का बिछौना बिछाया, आकाश की छत बनाई, पानी बरसाया, पैदावार निकाल कर तुम्हारे लिए रोज़ी जुटाई। तुमको यह सब मालूम है, तो फिर दूसरों को अल्लाह का समकक्ष मत ठहराओ। (सार, 2:22)
21. दाने और गुठली को फाड़कर पौधा और पेड़ उगाने वाला सजीव को निर्जीव से और निर्जीव को जीव से निकालने वाला अल्लाह है। फिर तुम (उसे छोड़ दूसरों की बन्दगी व उपासना करके) किधर बहके चले जा रहे हो? (सार, 6:95)
22. वही ईश्वर रात का परदा फाड़ कर सुबह निकालता है। उसी ने रात को तुम्हारे आराम व सुकून का समय बनाया; चांद व सूरज के निकलने-डूबने का हिसाब (प्रणाली) निश्चित किया। तारों को ज़मीन और समुद्र के अंधेरों के बीच रास्ता जानने का साधन बनाया, आसमान से पानी बरसाया उससे तरह-तरह की वनस्पति उगाई, हरे-भरे खेत, पेड़ पैदा किए, उनसे तले-ऊपर चढ़े हुए (अनाज व फल के) दाने निकाले। इन सब में, समझ-बूझ रखने वालों के लिए (विशुद्ध एकेश्वरवाद की) निशानियां और स्पष्ट प्रमाण हैं। (सार, 6:96-99)
23. तुम्हारा प्रभु, वास्तव में अल्लाह ही है जिसने आकाशों और धर्ती को बनाया जो रात को दिन पर ढांक देता है, जिसने सूरज, चांद, तारे पैदा किए जो (अपने काम, गति व Orbiting आदि में) उसके आदेश के अधीन हैं। सृष्टि उसी की, आदेश उसी का, वही सारे संसारों का मालिक व पालनहार, स्वामी व प्रभु; तो बस उसी से प्रार्थनाएं करो (किसी दूसरे से नहीं)। (सार, 7:54-55)
24. अल्लाह के सिवाय कोई नहीं जो उसके द्वारा डाली हुई किसी मुसीबत को तुम पर से टाल दे और अल्लाह कोई भलाई करना चाहे तो कोई भी शक्ति उसे इससे रोक नहीं सकती। अल्लाह के सिवा किसी ऐसे को न पुकारो जो तुम्हें न फ़ायदा पहुंचा सके न नुक़सान। (सार, 10:106-107)
25. अगर अल्लाह के सिवाय दूसरे पूज्य भी होते तो ज़मीन व आसमान दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती।(सार, 21:22)
26. अल्लाह ने किसी को अपनी औलाद नहीं बनाया है, उसके साथ कोई और दूसरा ख़ुदा नहीं है। कई और ख़ुदा भी होते तो हर एक अपनी सृष्टि को लेकर अलग हो जाता और फिर वे एक-दूसरे पर चढ़ दौड़ते। (सार, 23:91)
27. एकेश्वरवाद की कुछ निशानियां (प्रमाण): (1) सभी इन्सानों केा मिट्टी से पैदा करना (शरीर-रचना के सारे तत्व मिट्टी में मौजूद (2) इन्सानों की सहजाति से ही उनके जोड़े बनाना, एक-दूसरे से सुकून-शान्ति पाते हैं, जोड़े में आपसी प्रेम व दयालुता पैदा कर देना (3) आसमानों और ज़मीन की सृष्टि (4) सारे इन्सानों में रंग और बोली की भिन्नता (5) रातों को सोने के और दिन को रोज़ी कमाने के अनुकूल बनाना (6) बिजली की चमक, तथा मुर्दा ज़मीन को ज़िन्दगी प्रदान करने वाली बारिश (7) आसमानों और ज़मीन का क़ायम रहना (8) बेजान ज़मीन से अनाज और भांति-भांति के फल निकालना जिन्हें इन्सान पैदा नहीं कर सकते (9) वनस्पतियों और स्वयं मनुष्यों में जोड़े पैदा करना (10) रात पर से दिन को हटा लेना और अंधेरा छा जाना (11) सूर्य का अपनी कक्षा (Orbit) में चलना और चांद को अनेक चरणों से गुज़ारना (12) सारे नक्षत्रों का अपनी-अपनी कक्षा में एक हिसाब से तैरते जाना। (सार, 30:20-25, 36:33-40)
28. विशुद्ध एकेश्वरवाद के तर्क का एक उदाहरण: जब तुम अपने दासों (नौकरों, सेवकों आदि) को अपने स्वामीत्व में, अपने माल-दौलत में, अपने अधिकारों में शरीक होना पसन्द और बर्दाश्त नहीं करते तो फिर ईश्वर के प्रभुत्व, स्वामित्व व अधिकारों में दूसरों को साझी व समकक्ष क्यों बनाते हो? (भावार्थ, 30:28)
29. क्या अल्लाह के सिवाय कोई और स्रष्टा भी है जो तुम्हें आसमान व ज़मीन से रोज़ी देता हो? अल्लाह को हर चीज़ का सामर्थ्य प्राप्त है, वह अपनी सृष्टि-रचना में जैसी चाहता है अभिवृद्धि करता है। अपनी जिस रहमत का दरवाज़ा खोलना चाहे उसे कोई बन्द करने वाला या जिसे वह बन्द कर दे उसे कोई खोलने वाला नहीं है। उसके सिवाय कोई उपास्य नहीं, आख़िर तुम कहां धोखा खाए चले जा रहे हो? (सार, 35:1-3)
30. वह (ईश्वर) जब किसी काम का इरादा करता है तो बस आदेश दे देता है कि ‘‘हो जा’’, और वह काम हो जाता है। उसके ही हाथ में हर चीज़ का पूर्ण अधिकार है (अर्थात् किसी चीज़ के लिए वह किसी पर निर्भर नहीं, किसी भी काम के लिए किसी पर आश्रित नहीं और अधिकार, सामर्थ्य, शक्ति आदि में कोई दूसरा उसका साझीदार नहीं)। (सार, 36:82,83)
31. जो कुछ ज़मीन में जाता है, उसमें से निकलता है; आसमान से उतरता और उसमें चढ़ता है, वह (ईश्वर) सब मुख्य व समवेत और गौण व अंश का ज्ञाता है। जो काम भी तुम करते हो उसे वह देख रहा है। ज़मीन व आसमानों के राज्य का मालिक है और फ़ैसले के लिए सारे मामले उसी की ओर जाते हैं, वह दिलों में छुपे हुए रहस्यों तक को जानता है। (सार, 57:4-6)
32. धर्ती और आकाशों का शासन-सत्ता अल्लाह के लिए है उसके सिवाय कोई तुम्हारा संरक्षक, सहायक नहीं। (सार, 2:107)
33. जिसने अल्लाह का सहारा थामा उसने ऐसा मज़बूत सहारा थाम लिया जो कभी टूटने वाला नहीं है। वह सब कुछ सुनने वाला, जानने वाला है। (सार, 2:256)
34. अल्लाह राज्य का स्वामी है, जिसे चाहे दे, जिससे चाहे छीन ले, वह हर काम में समर्थ है। रात को दिन में पिरोता हुआ ले आता है और दिन को रात में। निर्जीव में से जीवधारी को निकालता है और जीवधारी में से निर्जीव को, और जिसे चाहता है अत्यधिक रोज़ी देता है। (सार, 3:26,27)
35. आकाशों और धर्ती की सारी चीज़ें चाहे-अनचाहे अल्लाह की आज्ञाकारी हैं और उसी की ओर सब को पलटना है। (सार, 3:83)
36. कोई प्राणी ईश्वर अल्लाह की अनुमति के बिना मर नहीं सकता, मौत का समय तो लिखा हुआ (अर्थात् निश्चित किया हुआ) है। (सार, 3:145)
http://www.islamdharma.org/article.aspx?ptype=A&menuid=16


हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)
अन्तिम ऋषि

इन्सान को ज़िन्दगी जीने के लिए जिस ज्ञान और मालूमात की ज़रूरत होती है, उसमें से काफ़ी हिस्सा उसकी पंचेन्द्रियों [Five Senses–देखना (आंख), सुनना (कान), सूंघना (नाक), चखना (जीभ), छूना (हाथ), के माध्यम से उसे हासिल होता है।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) विश्व नेता

किसी व्यक्ति को विश्व-नेता कहने के लिए कुछ मानदंड निर्धारित होने चाहिएँ और फिर उस व्यकित का, उन मानदंडों पर आकलन कर के देखना चाहिए कि वह उन पर पूरा उतरता है या नहीं।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) : प्रसिद्धतम व्यक्तित्व

‘‘यदि उद्देश्य की महानता, साधनों का अभाव और शानदार परिणाम—मानवीय बुद्धिमत्ता और विवेक की तीन कसौटियाँ हैं, तो आधुनिक इतिहास में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के मुक़ाबले में कौन आ सकेगा?
 
मुहम्मद (सल्ल॰) : ईशदूत

पैग़म्बर मुहम्मद की शिक्षाओं का ही यह व्यावहारिक गुण है, जिसने वैज्ञानिक प्रवृत्ति को जन्म दिया।
 
विश्वसनीय व्यक्तित्व (अल-अमीन)

इस्लाम का राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था से सीधा संबंध नहीं है, बल्कि यह संबंध अप्रत्यक्ष रूप में है और जहां तक राजनैतिक और आर्थिक मामले इन्सान के आचार-व्यवहार को प्रभावित करते हैं,
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) : महानतम क्षमादाता

‘‘जो अपने क्रोध पर क़ाबू रखते हैं......।’’ (क़ुरआन, 3:134)
इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)

मुहम्मद (सल्ल॰) का जन्म अरब के रेगिस्तान में मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार 20 अप्रैल, सन् 571 ई॰ हुआ।
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षाओं के प्रभाव

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षाओं के प्रभाव अगण्य और अनंत हैं, जो मानव स्वभाव, मानव-चरित्र, मानव समाज और मानव सभ्यता-संस्कृति पर पड़े।
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)

इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰), अत्यंत लम्बी ईशदूत-श्रृंखला में एकमात्र ईशदूत हैं जिनका पूरा जीवन इतिहास की पूरी रोशनी में बीता। इस पहलू से भी आप उत्कृष्ट हैं
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन-आचरण का सन्देश

प्रस्तुत विषय पर अगर तार्किक क्रम के साथ लिखा जाए, तो सबसे पहले हमारे सामने यह सवाल आता है कि एक नबी के जीवन-आचरण का ही सन्देह क्यों? किसी और का सन्देश क्यों नहीं?

पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षाएं
अच्छा मनुष्य, अच्छा ख़ानदान, अच्छा समाज और अच्छी व्यवस्था-यह ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हमेशा से, हर इन्सान पसन्द करता आया है क्योंकि अच्छाई को पसन्द करना मानव-प्रकृति की शाश्वत विशेषता है।
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने इन्सान, ख़ानदान, समाज और व्यवस्था को अच्छा और उत्तम बनाने के लिए जीवन भर घोर यत्न भी किए और इस काम में बाधा डालने वाले कारकों व तत्वों से संघर्ष भी। इस यत्न में उन शिक्षाओं का बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका और स्थान है जो आपने अपने समय के इन्सानों को, अपने साथियों व अनुयायियों को तथा उनके माध्यम से भविष्य के इन्सानों को दीं। ये शिक्षाएं जीवन के हर पहलू, हर क्षेत्र, अर अंग से संबंधित हैं। ये हज़ारों की संख्या में हैं जिन्हें बहुत ही तवज्जोह, निपुणता, और सत्यनिष्ठा के साथ एकत्रित, संकलित व संग्रहित करके ‘हदीसशास्त्र’ के रूप में मानवजाति के उपलब्ध करा दिया गया है। इनमें से कुछ शिक्षाएं (सार/भावार्थ) यहां प्रस्तुत की जा रही हैं:
● जो व्यक्ति अपने छोटे-छोटे बच्चों के भरण-पोषण के लिए जायज़ कमाई के लिए दौड़-धूप करता है वह ‘अल्लाह की राह में’ दौड़-धूप करने वाला माना जाएगा।
● घूस लेने और देने वाले पर लानत है...कोई क़ौम ऐसी नहीं जिसमें घूस का प्रचलन हो और उसे भय व आशंकाए घेर न लें।
● सबसे बुरा भोज (बुरी दअ़वत) वह है जिसमें धनवानों को बुलाया जाए और निर्धनों को छोड़ दिया जाए।
● सबसे बुरा व्यक्ति वह है जो अपनी पत्नी के साथ किए गए गुप्त व्यवहारों (यौन क्रियाओं) को लोगों से कहता, राज़ में रखी जाने वाली बातों को खोलता है।
● यदि तुमने मां-बाप की सेवा की, उन्हें ख़ुश रखा, उनका आज्ञापालन किया तो स्वर्ग (जन्नत) में जाओगे। उन्हें दुख पहुंचाया, उनका दिल दुखाया, उन्हें छोड़ दिया तो नरक (जहन्नम) के पात्र बनोगे।
● ईश्वर की नाफ़रमानी (अवज्ञा) की बातों में किसी भी व्यक्ति (चाहे माता-पिता ही हों) का आज्ञापालन निषेध, हराम, वर्जित है।
● बाप जन्नत का दरवाज़ा है और मां के पैरों तले जन्नत है (अर्थात् मां की सेवा जन्नत-प्राप्ति का साधन बनेगी)।
● तुम लोग अपनी सन्तान के साथ दया व प्रेम और सद्व्यवहार से पेश आओ और उन्हें अच्छी (नैतिक) शिक्षा-दीक्षा दो।
● सन्तान के लिए माता-पिता का श्रेष्ठतम उपहार (तोहफ़ा, Gift) है उन्हें अच्छी शिक्षा-दीक्षा देना, उच्च शिष्टाचार सिखाना।
● तुममें सबसे अच्छा इन्सान वह है जो अपनी औरतों के साथ अच्छे से अच्छा व्यवहार करे।
● पत्नी के साथ दया व करुणा से पेश आओ तो अच्छा जीवन बीतेगा।
● अल्लाह की अवज्ञा (Disobedience) से बचो। रोज़ी कमाने का ग़लत तरीक़ा, ग़लत साधन, ग़लत रास्ता न अपनाओ, क्योंकि कोई व्यक्ति उस वक्त तक मर नहीं सकता जब तक (उसके भाग्य में लिखी) पूरी रोज़ी उसको मिल न जाए। हां, उसके मिलने में कुछ देरी या कठिनाई हो सकती है। (तब धैर्य रखो, बुरे तरीके़ मत अपनाओ) अल्लाह से डरते हुए, उसकी नाफ़रमानी से बचते हुए सही, जायज़, हलाल तरीके़ इख़्तियार करना और हराम रोज़ी के क़रीब भी मत जाना।
● वस्त्रहीन (नंगे) होकर मत नहाओ। अल्लाह हया वाला है और अल्लाह के (अदृश्य) फ़रिश्ते भी (जो हर समय तुम्हारे आसपास रहते हैं) हया करते हैं।
● पति-पत्नी, यौन-संभोग के समय पशुओं के समान नंगे न हो जाएं।
● अत्याचारी, क्रूर और ज़ालिम शासक के सामने हक़ (सच्ची, खरी, न्यायनिष्ठ) बात कहना (सच्चाई की आवाज़ उठाना) सबसे बड़ा जिहाद है।
● धन हो तो ज़रूरतमन्दों को क़र्ज़ दो। वापसी के लिए इतनी मोहलत (समय) दो कि कर्ज़दार व्यक्ति उसे आसानी से लौटा सके। किसी वास्तविक व अवश्यंभावी मजबूरी से, समय पर न लौटा सके तो उस पर सख़्ती तथा उसका अपमान मत करो, उसे और समय दो।
● क़र्ज़ (ऋण) पर ब्याज न लो (ब्याज इस्लाम में हराम है)।
● सामर्थ्य हो जाए, आर्थिक स्थिति अनुकूल हो जाए फिर भी क़र्ज़ वापस लौटाया न जाए तो यह महापाप है (जिसका दंड परलोक में नरक की यातना व प्रकोप के रूप में भुगतना पड़ेगा)।
● ईश्वर चाहे तो इन्सान के गुनाह माफ़ कर दे। लेकिन उस व्यक्ति को माफ़ नहीं करेगा, चाहे वह शहीद (ईश मार्ग में जान भी दे देने वाला) ही क्यों न हो जो क़र्ज़ वापस लौटाने का सामर्थ्य होते हुए भी क़र्ज़दार होकर मरा।
● जो व्यक्ति क़र्ज़ वापस किए बिना (इस कारण कि वह इसका सामर्थ्य नहीं रखता था) मर गया तो उसकी अदायगी की ज़िम्मेदारी इस्लामी कल्याणकारी राज्य (उसके शासक) पर है।
● क़र्ज़ देकर एक व्यक्ति किसी ज़रूरतमंद आदमी को चोरी, ब्याज और भीख मांगने से बचा लेता है।
● मांगने के लिए हाथ मत फैलाओ, यह चेहरे को यशहीन कर देता (और आत्म-सम्मान के लिए घातक होता) है। मेहनत-मशक्क़त करो और परिश्रम से रोज़ी कमाओ। नीचे वाला (भीख लेने वाला) हाथ, ऊपर वाले (भीख देने वाले) हाथ से तुच्छ, हीन होता है।
 मज़दूर की मज़दूरी उसके शरीर का पसीना सूखने से पहले दे दो (अर्थात् टाल-मटोल, बहाना आदि करके, उसे उसका परिश्रमिक देने में अनुचित देरी मत करो)।
● सरकारी कर्मचारियों को भेंट-उपहार देना घूस (रिश्वत) है।
● मज़दूर की मज़दूरी तय किए बिना उससे काम न लो।
● अल्लाह कहता है कि परलोक में मैं तीन आदमियों का दुश्मन हूंगा। एक: जिसने मेरा नाम लेकर (जैसे-‘अल्लाह की क़सम’ खाकर)  किसी से कोई वादा किया, फिर उससे मुकर गया, दो: जिसने किसी आज़ाद आदमी को बेचकर उसकी क़ीमत खाई; तीन: जिसने मज़दूर से पूरी मेहनत ली और फिर उसे पूरी मज़दूरी न दी।
● पत्नी के मुंह में हलाल कमाई का कौर (लुक़मा) डालना इबादत है।
● रास्ते में पड़ी कष्टदायक चीज़ें (कांटा, पत्थर, केले का छिलका आदि) हटा देना (ताकि राहगीरों को तकलीफ़ से बचाया जाए) इबादत है।
● कोई व्यक्ति (मृत्यु-पश्चात) माल छोड़ जाए तो वह माल उसके घर वालों के लिए है। और किसी (कम उम्र सन्तान, पत्नी, आश्रित माता-पिता आदि) को बेसहारा छोड़ (कर मर) जाए तो उसकी ज़िम्मेदारी मुझ (इस्लामी सरकार) पर है।
● जिसका भरण-पोषण करने वाला कोई नहीं उस (असहाय, Destitute) के भरण-पोषण का ज़िम्मेदार राज्य है।
● जिस व्यक्ति ने बाज़ार में कृत्रिम अभाव (Artificial Scarecity) पैदा करने की नीयत से चालीस दिन अनाज को भाव चढ़ाने के लिए रोके रखा (जमाख़ोरी Hoarding की) तो ईश्वर का उससे कोई संबंध नहीं, फिर अगर वह उस अनाज को ख़ैरात (दान) भी कर दे तो ईश्वर उसे क्षमा नहीं करेगा। उसकी चालीस वर्ष की नमाज़ें भी ईश्वर के निकट अस्वीकार्य (Unacceptable) हो जाएंगी।
● मुसलमानों में मुफ़लिस (दरिद्र) वास्तव में वह है जो दुनिया से जाने के बाद (मरणोपरांत) इस अवस्था में, परलोक में ईश्वर की अदालत में पहुंचा कि उसके पास नमाज़, रोज़ा, हज आदि उपासनाओं के सवाब (पुण्य) का ढेर था। लेकिन साथ ही वह सांसारिक जीवन में किसी पर लांछन लगाकर, किसी का माल अवैध रूप से खाकर किसी को अनुचित मारपीट कर, किसी का चरित्रहनन करके, किसी की हत्या करके आया था। फिर अल्लाह उसकी एक-एक नेकी (पुण्य कार्य का सवाब) प्रभावित लोगों में बांटता जाएगा, यहां तक उसके पास कुछ सवाब बचा न रह गया, और इन्साफ़ अभी भी पूरा न हुआ तो प्रभावित लोगों के गुनाह उस पर डाले जाएंगे। यहां तक कि बिल्कुल ख़ाली-हाथ (दरिद्र) होकर नरक (जहन्नम) में डाल दिया जाएगा।
● अल्लाह फ़रमाता है कि बीमार की सेवा करो, भूखे को खाना खिलाओ, वस्त्रहीन को वस्त्र दो, प्यासे को पानी पिलाओ। ऐसा नहीं करोगे तो मानो मेरा हाल न पूछा, जबकि मानों मैं स्वयं बीमार था; मानो मुझे कपड़ा नहीं पहनाया, मानो मैं वस्त्रहीन था, मानो मुझे खाना-पानी नहीं दिया जैसे कि स्वयं मैं भूखा-प्यासा था।
● किसी परायी स्त्री को (व्यर्थ, अनावश्यक रूप से) मत देखो, सिवाय इसके कि अनचाहे नज़र पड़ जाए। नज़र हटा लो। पहली निगाह तो तुम्हारी अपनी थी; इसके बाद की हर निगाह शैतान की निगाह होगी। (अर्थात् शैतान उन बाद वाली निगाहों के ज़रिए बड़े-बड़े नैतिक व चारित्रिक दोष, बड़ी-बड़ी बुराइयां उत्पन्न कर देगा।)
● वह औरत (स्वर्ग में जाना तो दूर रहा) स्वर्ग की ख़ुशबू भी नहीं पा सकती जो लिबास पहनकर भी नंगी रहती है (अर्थात् बहुत चुस्त, पारदर्शी, तंग या कम व अपर्याप्त (Scanty) लिबास पहनकर, देह प्रदर्शन करती और समाज में नैतिक मूल्यों के हनन, ह्रास, विघटन तथा अनाचार का साधन व माध्यम बनती है)।
● दो पराए (ना-महरम) स्त्री-पुरुष जब एकांत में होते हैं तो सिर्फ़ वही दो नहीं होते बल्कि उनके बीच एक तीसरा भी अवश्य होता है और वह है ‘‘शैतान’’। (अर्थात् शैतान के द्वारा दोनों के बीच अनैतिक संबंध स्थापित होने की शंका व संभावना बहुत होती है।)
● तुम (ईमान वालों, अर्थात् मुस्लिमों) में सबसे अच्छा व्यक्ति वह है जिसके स्वभाव (अख़लाक़) सबसे अच्छे हैं।
● वह व्यक्ति (यथार्थ रूप में) मोमिन (अर्थात् ईमान वाला, मुस्लिम) नहीं है जिसका (कोई ग़रीब पड़ोसी भूखा सो जाए, और इस व्यक्ति को उसकी कोई चिंता न हो और यह पेट भर खाना खाकर सोए।
● वह व्यक्ति (सच्चा, पूरा, पक्का) मोमिन मुस्लिम नहीं है जिसके उत्पात और जिसकी शरारतों से उसका पड़ोसी सुरक्षित न हो।
● फल खाकर छिलके मकान के बाहर न डाला करो। हो सकता है आसपास (पड़ोसियों) के ग़रीब घरों के बच्चे उसे देखकर महरूमी, ग्लानि और अपनी ग़रीबी के एहसास से दुखी हो उठें।
● अपने अधीनों (मातहतों, Subordinates) से, उनको क्षमता, शक्ति से अधिक काम न लो।
● पानी में मलमूत्र मत करो (जल-प्रदूषण उत्पन्न न करो) ज़मीन पर किसी बिल (सूराख़) में मूत्र मत करो। (इससे कोई हानिकारक कीड़ा, सांप-बिच्छू आदि, निकल कर तुम्हें हानि पहुंचा सकता है और इससे पर्यावर्णीय संतुलन भी प्रभावित होगा।)
● अगर तुम कोई पौधा लगा रहे हो और प्रलय (इस संसार की और धर्ती की समाप्ति का समय) आ जाए तब भी पौधे को लगा दो। (इस शिक्षा में प्रतीकात्मक रूप से वातावर्णीय हित के लिए वृक्षारोपण का महत्व बताया गया है।)
● पानी का इस्तेमाल एहतियात से करो चाहे जलाशय से ही पानी क्यों न लिया हो और उसके किनारे बैठे पानी इस्तेमाल कर रहे हो। ज़रूरत से ज़्यादा पानी व्यय (प्राकृतिक संसाधन का अपव्यय) मत करो (इस शिक्षा में प्रतीकात्मक रूप से जल-संसाधन अनुरक्षण (Water resource conservation) के महत्व का भाव निहित है)।
● भोजन के बर्तन में कुछ भी छोड़ो मत। एक-एक दाने में बरकत है। बर्तन को पूरी तरह साफ़ कर लिया करो। खाद्यान्न/खाद्यपदार्थ का अपव्यय मत करो। (इस शिक्षा में प्रतीकात्मक रूप से खाद्य-संसाधन-अनुरक्षण (Food resource conservation) का भाव निहित है।
● किसी पक्षी को (पिजड़े आदि में) क़ैद करके न रखो। (इस शिक्षा में प्रतीकात्मक रूप से हर जीवधारी के ‘स्वतंत्र रहने’ के मौलिक अधिकार का महत्व निहित है।)
● किसी पालतू जानवर-विशेषतः जिससे तुम अपना काम लेते हो, जैसे बैल, ऊंट, गधा, घोड़ा आदि–को भूखा-प्यासा मत रखो, उससे उसकी ताक़त से ज़्यादा काम मत लो; उसको निर्दयता के साथ मारो मत। याद रखो, आज जितनी शक्ति तुम्हें उस पर हासिल है, परलोक में (ईश्वरीय अदालत लगने के समय) ईश्वर को तुम पर उससे अधिक शक्ति होगी।
● दान दो (विशेषतः किसी व्यक्ति को) तो इस तरह दो कि तुम्हारा दायां हाथ दे तो बाएं हाथ को मालूम न हो। (अर्थात् दान देने में, दिखावा मत करो कि लोगों में दानी-परोपकारी व्यक्ति के तौर पर अपनी शोहरत के अभिलाशी रहो। दान मात्र ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए, परलोक में अल्लाह ही से पारितोषिक पाने के लिए दो।)
● जिसे दान दो उस पर एहसान, उपकार मत जताओ, उसे मानसिक दुःख मत पहुंचाओ।
● जिसने किसी ज़िम्मी (इस्लामी शासन में ग़ैर-मुस्लिम बाशिन्दे) की हत्या की उसके ख़िलाफ़ अल्लाह की अदालत में (परलोक में) ख़ुद मैं मुक़दमा दायर करूंगा। (विदित हो कि ‘ज़िम्मी’ का अर्थ है वह ग़ैर-मुस्लिम व्यक्ति जिसके जान-माल की हिफ़ाज़त का ज़िम्मा, उस के मुस्लिम राज्य में रहते हुए, शासन व इस्लामी शासक पर होता है, ज़िम्मी की हत्या करने वाला मुसलमान, सज़ा के तौर पर क़त्ल किया जाएगा और अगर, गवाह-सबूत न होने या किसी और कारण से वह क़त्ल होने से बच भी गया तो हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) परलोक में स्वयं उसके ख़िलाफ़ ईश्वरीय अदालत में दंड के और ज़िम्मी के हक़ में इन्साफ़ के याचक होंगे।)
● पराई स्त्रियों को दुर्भावना-दृष्टि से मत देखो। आंखों का भी व्यभिचार होता है और ऐसी दुर्भावनापूर्ण दृष्टि डालनी, आंखों का व्यभिचार (ज़िना) है। (और यही दृष्टि शारीरिक व्यभिचार/बलात्कार का आरंभ बिन्दु है)।
● जो तुम पर एहसान करे तो उसका एहसान हमेशा याद रखो। किसी पर एहसान करो तो इसे भूल जाओ (अर्थात उस पर एहसान न जताओ)।
● कोई व्यक्ति कोई सौदा कर रहा हो तो उसके ऊपर तुम सौदा करने मत लग जाओ (अगर उस व्यक्ति का सौदा तय नहीं हुआ तब तुम सौदा करो)।
● नमूना (बानगी, Sample) कुछ दिखाकर, माल किसी और क्वालिटी का मत बेचो।
● ऐसी किसी भी चीज़ को किसी के हाथ बेचने का सौदा मत करो जिसे ख़रीदकर तुम अपनी मिल्कियत में न ले चुके हो।
● रुपये से रुपया मत कमाओ। (यह अवैध है क्योंकि ब्याज है।) रुपये से तिजारत, कारोबार (Business, Trading) करके रुपया कमाओ। यह ‘मुनाफ़ा’ (Profit, लाभ) है, और वैध व पसन्दीदा है।
● सूद लेना इतना घोर पाप है जैसे कोई अपनी मां के साथ व्यभिचार करे।
● कोई व्यक्ति पाप करता है तो उसके दिल में एक काला धब्बा पड़ जाता है। यदि वह पछताकर, पश्चाताप करते हुए तौबा कर लेता और अल्लाह से माफ़ी मांग लेता है और संकल्प कर लेता है कि अब उस पाप कर्म को नहीं करेगा, तो वह धब्बा मिट जाता है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह बार-बार पाप करेगा और हर बार दिल के अन्दर का धब्बा फैल कर बड़ा होता जाएगा। अंततः उसका पूरा हृदय सियाह (काला) हो जाएगा (और पापाचार उसके जीवन का अभाज्य अंग बन जाएगा)।
● झूठी गवाही देना उतना ही बड़ा पाप है जितना शिर्क (अर्थात् ईश्वर के साथ किसी और को भी शरीक-साझी बना लेने का महा-महापाप)।
पहलवान वह नहीं है जो कुश्ती में किसी को पछाड़ दे, बल्कि अस्ल पहलवान वह है जो गु़स्सा आ जाने पर, अपने क्रोध को पछाड़ दे (अर्थात् उस पर क़ाबू पा ले)।
● सच्चा मुजाहिद (ईश मार्ग का सेनानी) वह है जो (ईशाज्ञापालन में अवरोध डालने वाली) अपने मन (की प्रेरणाओं व उकसाहटों) से लड़ता है।
● तुम छः बातों की ज़मानत दो तो मैं तुम्हें ईशप्रदत्त स्वर्ग की ज़मानत देता हूं। (1) बोलो तो सच बोलो, (2) वादा करो तो पूरा करो, (3) अमानत में पूरे उतरो, (4) व्यभिचार से बचो, (5) बुरी नज़र मत डालो, (6) जु़ल्म करने से हाथ रोके रखो।
● जिस व्यक्ति ने कोई त्रुटिपूर्ण (Defective) चीज़ इस तरह बेच दी कि ग्राहक को उस त्रुटि से बाख़बर न किया उस पर अल्लाह क्रुद्ध होता है और अल्लाह के फ़रिश्ते उस पर लानत (धिक्कार) करते हैं।
● अपने अधीनस्थ लोगों से कठोरता का व्यवहार करने वाला व्यक्ति स्वर्ग में नहीं जा सकेगा।
● नमाज़, रोज़ा, दानपुण्य से भी बढ़कर यह काम है कि दो व्यक्तियों या गिराहों में बिगाड़ व वैमनस्य पैदा हो जाए तो उनके बीच सुलह करा दी जाए।
● लोगों में बिगाड़, विद्वेष, वैमनस्य, शत्रुता पैदा करना वह काम है जो ऐसा करने वाले व्यक्ति की सारी नेकियों, अच्छाइयों, सद्गुणों पर पानी फेर देता है।
● लोगों के व्यक्तिगत जीवन और निजी, दाम्पत्य व पारिवारिक मामलों की टोह में मत रहा करो।
● दूसरों के घर में बिना इजाज़त न दाख़िल हो, न ताक-झांक करो, न उनकी गोपनीयता (Privacy) को भंग करो।
● किसी से बदला लो तो बस उसी मात्रा में जितना तुम पर उसने अत्याचार किया है और क्षमा कर दो तो यह उत्तम है।
● दूसरों के प्रति अपने व्यवहार वैसे ही रखो, जैसे व्यवहार तुम अपने प्रति उनसे चाहते हो।
● तुम्हारे अपने व्यक्तित्व और शरीर का तुम पर हक़ है अतः अत्यधिक उपासना करके अपने शरीर को बहुत अधिक कष्ट में मत डालो। (अर्थात् जीवन के आध्यात्मिक तथा भौतिक पहलुओं में संतुलन रखो।)
● वह औरत बहुत अच्छी और गुणवान है जो अपने पति की ओर देखे तो पति प्रसन्न चित्त हो जाए। (इससे, दूसरी स्त्रियों की ओर पति के आकर्षित होने तथा दाम्पत्य जीवन व परिवार में खिन्नता व बुराई आने का रास्ता रुकता है।)
http://www.islamdharma.org/article.aspx?ptype=A&menuid=25